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अक्षर-विज्ञान


भाषा अर्थात् ज्ञान, ( अर्थ ) बिना शब्द के दूर देश जा ही नहीं सकता"।

यह ज्ञान-राशि प्राचीन ऋषियों ने वेदों से प्राप्त की। “अतएव समस्त ज्ञान का उद्गम वेद है"।

यह ज्ञान अन्य देशों में किस तरह पहुँचा, इसका उत्तर अक्षर-विज्ञान के कर्ता इस तरह देत़े हैं―

“आर्यावर्त के ज्ञान के साथ अर्थात् वेदों के ज्ञान के साथ, वेदों की भाषा में ही बन्द होकर वह दुनिया में फैला और आर्या-वर्त की ही भाषा सारे संसार में फैली है"।

इसके आगे आपने अरबी, फ़ारसी, ज़ेन्द, अँगरेज़ी, चीना, जापानी और द्राविड़ आदि भाषाओं के शब्दों की सूचियाँ देकर यह सिद्ध करने की चेष्टा की है कि हज़ारों वर्ष बीत जाने पर भी इन भाषाओं में अब भी सैकड़ों शब्द ऐसे वर्तमान हैं जो वैदिक संस्कृत-भाषा ही के अपभ्रंश हैं। मतलब यह कि सृष्टि के आदि में वैदिक-भाषा ही प्रचलित थी। वही धीरे धीरे अन्य देशों में भी फैल गई और कालान्तर में अपभ्रष्ट होकर उसने नये नये रूप धारण कर लिये। यह सब तो ठीक। इसके प्रमाण भी आपने बहुत दिये। पर एक बात के प्रमाण आपने काफ़ी नहीं दिये। आपकी जो यह सम्मति है कि ईश्वर ही की कृपा से, वेदों के द्वारा, हमारे पूर्वजों को समस्त ज्ञान-राशि का ज्ञान हुआ, सो इसकी पुष्टि में भी दस बीस प्रमाण आपको देने थे। आपकी इस विषय की उक्तियाँ सुनकर हमें हरविलास महाशय की "हिन्दू सुपीरियारिटी" और काँगड़ी के गुरुकुल से निकले हुए भारतवर्ष के एक इतिहास का स्मरण हो आया। साथ ही वेदों को ज्ञानकाण्ड का आकर बतानेवाले स्वामी