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अक्षर-विज्ञान


ख़ून की कणिकाओं का आकार प्रायः एक ही सा होता है। अत- एव इन्होंने यह सिद्धान्त निश्चित किया है कि मनुष्य बन्दर ही की कोटि का प्राणी है। इससे डारविन के सिद्धान्त की तो पुष्टि हुई; पर अनेक पशु-विद्याविशारदों के सिद्धान्तों को धक्का पहुँचा। कितनी ही पशु-पक्षियों के जाति-निर्देश में भूले निकलीं। यथा―अब तक विद्वानों की समझ थी कि गिनी फाउल नामक चिड़िया मुरग़ी की जाति की है; पर यह यथार्थ में है शुतुरमुर्ग़ की जाति की। इसी तरह भालू को ये लोग, कुत्ते और गीदड़ की तरह, स्थलचर समझते थे, पर यथार्थ में है वह जलचर―शील आदि प्राणियों की जाति का। यह रासायनिक परीक्षा अब सर्वमान्य समझी जाती है। इससे इस पुस्तक के लेखक के सिद्धान्त का खण्डन और डारविन के सिद्धान्त का मण्डन होता है। अतएव लेखक महाशय को चाहिए कि पुस्तक के अगले संस्करण में इस रुधिर-विषयक सिद्धान्त के खण्डन की भी चेष्टा करें।

जैसा ऊपर, एक जगह पर, लिखा जा चुका है, आपकी राय है कि―आदि-सृष्टि हिमालय पर ही पैदा हुई और वहीं से मनुष्य सारी पृथिवी में गये। यह ख़याल ग़लत है कि मनुष्य पृथिवी के हर भाग में पैदा हुए"। इसलिए कि―

“मनुष्यों की आदि सृष्टि गर्म, मातदिल और पृथिवी के सब से ऊँचे स्थान में" ही हो सकती थी और ऐसा―“स्थान हिमालय ही है, जो शीत और उष्णता को मिलाता और पृथिवी भर में सबसे ऊँचा है"।

हिमालय पर आदि सृष्टि करके परमेश्वर ने―

“हमारे बुजुर्ग़ों को शुरू में सब अावश्यक और प्रावेशिक तथा सूक्ष्मातिसूक्ष्म विषयों को बतला दिया, जिसे हम बुनियादी