पूछा। उन्होंने कहा―“वह पेड़ अब फल देने लगा है"। अक्षर-विज्ञान के लेखक महाशय यदि हुशङ्गाबाद से कभी गुज़रें तो कृपा करके स्टेशन-मास्टर से इस पेड़ की बाबत ज़रूर पूछपाछ करें। वह अब तक बना है या नहीं, और है ता फल देता है या नहीं? एक क़लमी आम की गुठली से उत्पन्न हुआ पौधा हमने अपने जन्मग्राम में भी लगाया था। वह जल्द बढ़ा और फल देने लगा। पर, आज कोई चार साल का अरसा हुआ, जड़ में दीमक लग जाने से, यह सूख गया। इन उदाहरणों से हमारा अभिप्राय आपकी युक्तियों को काटना नहीं है। हमने सिर्फ़ अपना तजरुबा लिख दिया है। सम्भव है, हमारे ये तजरुबे अपवाद-रूप हों। इनकी सङ्गति लगाना पुस्तककार का काम है। उनका कथन है―
“वंशपरम्परा के प्रतिकूल ज़रा भी आकार-प्रकार में परिवर्तन होने से वंश नहीं चलता। तब विकासवाद में, क्रम क्रम उन्नति वाले धोखे के विश्वास में, कुछ भी दम नहीं। x x x x बन्दर और गोरेला ( वनमनुष्य ) की बनावट में इतना अन्तर नहीं है जितना गोरेला और मनुष्य में अन्तर है। और यह अन्तर ऐसा है जिसको विज्ञान कभी भी एक न होने देगा। x x x x x अतः यह निश्चय है―निर्विवाद है, निःसंशय है―कि आदि-सृष्टि में मनुष्य इसी प्रकार हुआ जिस प्रकार का अब है, और होना ही चाहिए था"।
रसायन-शास्त्र के आचार्यों ने प्राणियों के ख़ून की परीक्षा का एक नया ढँग निकाला है। उससे उन्होंने यह निश्चय किया है कि प्राणियों के ख़ून की कणिकाओं का आकार जुदा जुदा होता है। आप कुत्ते, बिल्ली, हिरन, बन्दर, मनुष्य, साँप आदि के ख़ून उन को दीजिए। वे बता देंगे कि कौन खन किस जाति के प्राणी का है। इनकी परीक्षाओं से सिद्ध हो गया है कि मनुष्य और बन्दर के