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गोपियों की भगवद्भक्ति


ही प्रेम करते हैं और उसी को हर तरह नित्यप्रति रिझाने की चेष्टा में रत रहते हैं। आपके मुक़ाबले में पति, सुत, बन्धु, आदि जन कोई चीज़ नहीं। उनको रिझाना व्यर्थ ही नहीं, नाना प्रकार के क्लेशों का कारण भी है। जिसने उन्हें रिझाया―जिसने उनसे विशेष प्रेम किया-वह तो भवबन्धन से सर्वथा ही बँध गया। उसका छुटकारा कहाँ? उसके लिए तो आप अपने को दुर्लभ ही समझिए। इससे आप अब दया कीजिए। हम आपको अपना परमाराध्य ईश्वर ही समझ कर आपकी सेवा में उपस्थित हुई हैं। आपकी इस प्रकार सेवा करने की लालसा चिरकाल से हमारे हृदय में जागृत है। उसे पूर्ण कर दीजिए, हमारी आशालता के टुकड़े टुकड़े न कर डालिए। हमें निराश न कीजिए। अपने विरुद को सँभालिए। अपना पाण्डित्य और किसी मौक़े के लिए रख छोड़िए। हम तो अपना सर्वस्व-तन और मन-आपके अर्पण कर चुकीं। अतएव, अब, यथायोग्यं तथा कुरु।

कहने की ज़रूरत नहीं, गोपियों का अनन्य प्रेम और उनकी निर्व्याज भक्ति देख कर भगवान् कृष्ण ने उनकी सेवा को स्वीकार करके उन्हें कृतकृत्य कर दिया। परन्तु उन्होंने उन प्रेयसी गोपियों के साथ दिल्लगी करना फिर भी न छोड़ा। एक बार, उसी रात को, वे अचानक उनके बीच से अन्तर्धान हो गये। परन्तु वह दूसरा क़िस्सा है। इससे उसे जाने दीजिए।

श्रीकृष्ण की इस लीला पर कुछ लोगों के द्वारा बड़ी ही कड़ी टीकायें की गई हैं और अब तक की जाती हैं। स्वयं पुराणकारों ही ने गोपियों को "व्यभिंचारिणी" बना कर फिर उनके इस कलङ्क का परिमार्जन किया है। इस लीला की असलियत क्या थी, यह जानना तो सर्वथैव असम्भव है। जो कुछ इस विषय में कहा जा सकता है केवल अनुमान और तर्क ही की सहायता से कहा जा