अक्षर-विज्ञान *
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हिन्दी-लेखकों पर बहुधा यह दोष लगाया जाता है कि वे अनुवाद करने ही में बड़े दक्ष हैं; आश्रय और आधार के भरोसे ही वे लेखक और ग्रन्थकार बनना चाहते हैं। यह आरोप निर्मल नहीं। तथापि सभी अनुवादकों को, केवल अनुवादक होने ही के कारण, तुच्छदृष्टि से देखना अन्याय है। अनुवाद यदि किसी अच्छे, उपयोगी और समयोचित ग्रन्थ का है तो ऐसा एक ही अनुवाद अनेक छोटी छोटी नई पुस्तकों की अपेक्षा अधिक अादर की चीज़ है। फिर, एक बात यह भी है। दुनिया में नयापन―नूतनत्व―ऐसी चीज़ नहीं जो गली गली मारी मारी फिरती हो। नूतन ग्रन्थों और लेखों में भी और लोगों के विचार बहुधा पाये ही जाते हैं। ऐसा कौन है जिसने अपने पूर्ववर्ती ग्रन्थकारों के विचारों से लाभ न उठाया हो और जिसके ग्रन्थों पर पुराने लेखकों के विचारों की छाया न पड़ी हो? फिर, हिन्दी का साहित्य अभी बाल्यदशा ही में है। कुछ ही समय से दस पाँच कृतविद्य जनों की दृष्टि इस ओर खिँचि है। अतएव सभी अनुवादों को कुदृष्टि से देखना और प्राश्रय तथा आधार शब्दों पर नाक-भौंह चढ़ाना युक्तिसङ्गत नहीं।
हर्ष की बात है, ऐसी दशा में भी, आज, हमें एक ऐसी पुस्तक का परिचय पाठकों से कराना है जिसका अधिकांश बिलकुल ही नया है जिसके लिखने में लेखक ने अपने दिमाग़ से बहुत कुछ
- लेखक, पण्डित रघुनन्दन शर्मा, प्रकाशक, शूरजी बल्लभदास ऐंड कम्पनी, बड़गादी, मुम्बई, पृष्ट-संख्या १५ x १३६; मूल्य १ रुपया।