पर इससे यह न समझना चाहिए कि आठ ही सर्ग लिख कर कालिदास ने कुमारसम्भव छोड़ दिया था। बहुत सम्भव है,उन्होंने और भी कई सर्ग लिखे हो, पर वे नष्ट हो गये हो। इस सम्भावना का एक कारण है। विक्रमोर्व्वशीय के अन्त में कवि-कुलगुरु ने नारद मुनि के हाथ से आयु का यौवराज्याभिषेक कराया है। उस समय उन्होंने कुमार कार्तिकेय के सेनापति-पद पर अभिषिक्त होने का स्मरण किया है। उससे ऐसा भासित होता है जैसे वे अपने कुमार-सम्भव में वर्णन किये गये कार्तिकेय के अभिषेक की याद दिला रहे हों। इसी से अनुमान होता है कि कालिदास ने कुमार-सम्भव के आठवें सर्ग के आगे भी कुछ लिखा होगा। पर किसी कारण से वह अंश नष्ट हो गया।
ऐसे ही ऐसे और भी कितने ही रहस्यों के उद्घाटन की चेष्टा श्रीयुत केशवलाल जी ने “पराक्रमनी प्रसादी” में की है। एतदर्थ आप को अनेक साधुवाद।
संस्कृत के महाकाव्यों में जिन वृत्तों का प्रयोग हुआ है वे गुजराती भाषा के कवियों की कविता में भी पाये जाते हैं। उन वृत्तों का उपयोग गुजराती में प्रतिदिन होता है। केशवलाल जी ने भी “पराक्रमनी प्रसादी" में उन से काम लिया है। परन्तु गुजराती वृत्तों में एक विशेषता देखी जाती है। वह यह कि पिङ्गल-सूत्रवृत्ति और वृत्त-रत्नाकर आदि में कहे हुए लक्षणों का अनुसरण कर के भी कभी कभी लघु को दीर्घ और दीर्घ को लघु करने की प्रवृत्ति गुजराती-कवित्ता में दिन पर दिन बढ़ती सी जा रही है। उदाहरण के लिए “पराक्रमनी प्रसादी" का पहला पद्य देखिए-