कवि नहीं, किन्तु अश्वघोष के समय के हैं। अनुष्टुभ् आर्ष-छन्द है; आख्यानकी उसके बाद का है। इन दोनों की अधिकता रघुवंश और बुद्धचरित में है। रघुवंश में माल्यभारिणी नामक वृत्त एकदेशीय है। अर्थात् किसी पूरे सर्ग की रचना उस में नहीं की गई। फुटकर तौर पर यह छन्द आया है। पर यही एकदेशीय छन्द बुद्धचरित में व्यापक भाव से वर्तमान है। इसके सिवा रुचिरा और शिखरिणी भी बुद्धचरित में व्यापक हैं। इस से साफ सूचित होता है कि बुद्धचरित रघुवंश के बाद का है। बुद्ध-चरित के प्रणेता अश्वघोष सन् ईसवी के पहले शतक में विद्यमान थे। यह बात ऐतिहासिक प्रमाणों से सिद्ध है। अतएव, इससे यह भी सिद्ध समझिए कि अश्वघोष से कम से कम सौ वर्ष पहले कालिदास हुए होगें। निष्कर्ष यह निकला कि जिस विक्रम के नाम से अपना संवत् प्रचलित है उसी के समय में, अर्थात्इ सवी सन् से ५६ वर्ष पहले, कालिदास का समय समझना चाहिए।
“पराक्रमनी प्रसादी" की भूमिका के विद्वान् लेखक की यही मुख्य दलील है। इसके सिवा और भी कई युक्तियों से उन्होंने अपने सिद्धान्त की पुष्टि की है। परन्तु उन सब बातों का उल्लेख इस छोटे से लेख में नहीं हो सकता। जो गुजराती भाषा पढ़ सकते हैं उन्हें ध्रुव महाशय का मूल लेख पढ़ना चाहिए। उनकी पूर्वोक्त पुस्तक ओरियंटल बुक डिपो, अहमदाबाद, से १२ आने में मिल सकती है। पुस्तक अच्छी छपी है। सचित्र है। जिल्द बँधी हुई है।
ध्रुव महाशय की राय है कि कालिदास का पहला काव्य कुमार-सम्भव है और सबसे पिछला रघुवंश। इस महाकवि ने