धर्म्मशास्त्रज्ञ बन कर आपने यही फरमाया है न कि पति पुत्र, सुहृद् और अन्य कुटुम्बियों के विषय में स्त्रियों को अपना धर्म्म-पालन करना चाहिए ―अर्थात् उनके प्रति स्त्रियों का जो कर्तव्य है उससे उन्हें च्युत न होना चाहिए? यही न? अच्छा तो अब आप यह भी फरमा दीजिए कि जितने देहधारी हैं उन सब के ईश्वर, उन सब की आत्मा उन सब के बन्धु भी आप ही हैं या नहीं? अगर हैं और अगर दिव्यदृष्टि वाले ऋषियों का यह सिद्धान्त भी सच है कि "कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्” तो बस हो चुका। तो हम अपने पति, पुत्र, सखा और सहोदर आदि की भावनायें सब आप ही में करती हैं। आप ही हमारे पिता, आप ही हमारे पुत्र, आप ही हमारे पति और आप ही हमारे सब कुछ हो। हमारी भावनाओं पर आपका क्या ज़ोर! हम मिट्टी को यदि सुवर्ण समझ लें, पत्थर को यदि रत्न समझ लें, विष को यदि अमृत मान लें, तो इससे किसी का क्या हर्ज? यदि आप तनुभृज्जनों की आत्मा हैं―यदि आप घट घट में व्यापक हैं―तो किसी के पिता, किसी के पति, किसी के पुत्र आप स्वयं ही बन चुके। फिर भला किस युक्ति से आप अपने में हमारी पति-भावना से छुटकारा पा सकते हैं? आप अपनी धर्म्मज्ञता का अम्बर या आडम्बर समेटिए। उसे औरों के लिए रख छोड़िए―
कुर्वन्ति हि त्वयि रतिं कुशलाः स्व आत्मन्
नित्यप्रिये पतिसुतादिभिरार्तिदैः किम्।
तन्नः प्रसीद परमेश्वर मास्म छिन्द्दा
आशालतां त्वयि चिरादरविन्दनेत्र॥
हे कमललोचन, सर्वदर्शी विद्वान् तो आप ही को सब का भोक्ता और सब का ईश्वर समझते हैं। इसी से आप अन्तर्यामी आत्मा