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समालोचना-समुच्चय

“पराक्रमनी प्रसादी"

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हमारे संयुक्त-प्रान्तों में हिन्दी के अच्छे लेखकों की बड़ी कमी है। जिन की मातृभाषा हिन्दी है वे हिन्दी की क़दर ही नहीं करते। उनमें से अधिकांश लोग तो उर्दू ही के क्रीतदास से हैं। इसी से हिन्दीसाहित्य की इतनी हीन दशा है। परन्तु दुःख की बात तो यह है कि जो लोग हिन्दी लिख सकते हैं और लिखने के लिए समय भी निकाल सकते हैं वे भी उससे दूर भागते हैं। ऐसे भी कितने ही सज्जन हैं जो विद्यार्थि-दशा में तो हिन्दी के बड़े प्रेमी रहते हैं―हिन्दी लिखते भी हैं और हिन्दी लेखकों की शिष्यता स्वीकार करने में अपना गौरव तक समझते हैं--पर वकील, बैरिस्टर, इन्सपेक्टर, टीचर, पोस्टमास्टर अथवा ऐसे ही कोई और 'टर' हो जाने पर वे अपने सारे पूर्व-प्रेम को उठा कर ताक पर रख देते हैं। ऐसी दशा में बेचारी हिन्दी कैसे उन्नति कर सकती है। अभी उस दिन इलाहाबाद में ऐंग्लो-बङ्गाली हाई स्कूल का जलसा था। छात्रों को इमाम बाँटा गया था। हमारे छोटे लाट सर जेम्स म्यस्टन भी उस में शरीक हुए थे। उन्होंने वहाँ अपने वक्तव्य में वङ्ग-भाषा के साहित्य की उन्नति पर हर्ष और सन्तोष प्रकट किया था और इस सम्बन्ध में बङ्गालियों की बड़ी बड़ाई की थी। यह बड़ाई बङ्गालियों को कभी प्राप्त न होती यदि शिक्षित वड़्गवासी अपनी भाषा की क़दर न करते और उस में पुस्तकें लिखना अपनी हतक समझते। पर हज़ार अनुनय-विनय करने पर भी हमारे प्रान्तवासी शिक्षित हिन्दू इस ओर ध्यान नहीं देते। अन्य प्रान्तों में अनेक, हेड मास्टर और प्रोफेसर तक अपनी भाषा लिखते पढ़ते हैं। पर इन प्रान्तों में एक छोटा