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समालोचना-समुच्चय

इसी विषय-सूची में एक जगह “छन्द-विद्या" और दूसरी जगह “औषधि" शब्द आये हैं। अब प्रश्न यह है कि क्या ये दोनों शब्द पाणिनि-व्याकरण के अनुसार शुद्ध हैं? इनको संस्कृत नहीं, किन्तु हिन्दी-शब्द मान कर तो इस तरह भी हम लिख सकते हैं। परन्तु इस कोष में पाणिनि-व्याकरण की बेतरह दुहाई दी गई है। प्रथम खण्ड के पहले ही पृष्ठ पर-"अकः सवर्णे दीर्घः“―और "अतोरारप्लुतादप्लुते“―सूत्र प्रमाण में उद्धृत किये गये हैं। अतएव या तो कोष सम्पादक हिन्दी-शब्दों के साधन में संस्कृत व्याकरण को प्रमाण न मानें, या यदि प्रमाण मानें तो “छन्दोविद्या" और “औषधि" न लिखकर “छन्दोविद्या" और “औषधि" या "औषध" लिखें।

इस कोश के प्रणेता और सम्पादकों ने, जान पड़ता है, इसका पहला खण्ड निकालने में बड़ी जल्दी की है। खोज से बहुत ही कम काम लिया है। चौथे पृष्ठ पर एक शब्द “अँकरा" है। उसके सम्बन्ध में लिखा है―

“एक प्रकार का खर जो गेहूँ के पौधों के बीच में उत्पन्न होता है और यह बैलों के खिलाने के काम में आता है।"

भाषा की शिथिलता और अशुद्धता को जाने दीजिए। विचार केवल इस बात का कीजिए कि कोषकार का यह लिखना कहाँ तक ठीक है। जिस जगह हम रहते हैं वह चारों तरफ़ खेतों से घिरी है। हमने तो गेहूँ के ही पौधों के बीच अँकरा उत्पन्न होते नहीं देखा। गेहूँ, चना, मटर, जौ, सभी के खेतों में वह होता है। बात यह कि किसान अच्छी तरह साफ़ करके बीज नहीं बोते। वीज या खाद में यदि अँकरा रहता है तो वह भी उग आता है; बीज चाहे जौ का हो, चाहे गेहूँ का, चाहे चने का, चाहे और