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हिन्दी-विश्वकोष

तब उनके लिए विशुद्ध भाषा में अपने विचार प्रकट कर देना कोई बड़ी बात नहीं। यह बात छोटे मोटे अखबारों और पुस्तकों के लेखक तथा सम्पादक भी कर सकते हैं। परन्तु खेद के साथ कहना पड़ता है कि इस हिन्दी-विश्वकोष के विद्वान् सम्पादकों ने शुद्ध भाषा लिखने की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया। भाषा-सम्बन्धिनी भूलें इस कोष के पहले खण्ड में, जगह जगह पर, पाई जाती हैं। इस खण्ड के आवरण के चौथे पृष्ठ पर जो “संक्षिप्त विषयसूची” छपी है उस तक में भाषा की अशुद्धियाँ हैं। दो एक उदाहरण लीजिए―

(१) “बहुत से प्राचीन खोदे हुए ताम्र-फलक और शिलालिपि का चित्र के साथ पूरा पूरा वर्णन और परिचय"

(२) “जगत को विभिन्न जातियों, समाज और धर्म के अभ्युत्थान और पतन का क्रम से इतिहास"।

इनमें से एक के विषय में निवेदन यह है कि यदि ताम्रफलक आदि “बहुत" से हैं" तो उनका प्रयोग बहुवचन में होना चाहिए था― “ताम्रफलकों और शिलालिपियों, लिखना चाहिए था। साथ ही चित्र की जगह "चित्रों" होना चाहिए था। नं० (२) उदाहरण के विषय में यह प्रार्थना है कि जिस तरह “जातियों" लिख कर जाति शब्द का प्रयोग बहुवचन में किया गया है उसी तरह “समाज" और “धर्म" का क्यों न होना चाहिए था? जगत् में जिस तरह भिन्न भिन्न अनेक जातियाँ हैं उसी तरह भिन्न भिन्न अनेक समाज और धर्म्म भी हैं। “समाज" और “धर्म्म" को समुदायवाचक मानकर यदि एक ही वचन में रखना मुनासिब समझा गया तो “जाति" शब्द में कौन सी ऐसी विशेषता थी जिसे एकमात्र उसे बहुवचन में रखना उचित समझा गया?