हिन्दी में रूपान्तरित हुई हैं। दस पन्द्रह वर्ष पूर्व तो साल में शायद ही दस पाँच पुस्तकें बँगला से हिन्दी में लिखी जाती रही हों। इस दशा में अनुवादों की संख्या के विषय में सम्पादक महाशय का “simply enormous" (बेइन्तिहा, असंख्य) कहना या तो उनकी अनभिज्ञता का सूचक है या बँगला को जान बूझ कर अनुचित महत्ता देने का बोधक।
हिन्दी के विषय में आपका एक आक्षेप यह भी है― “Hindi literature may be said to be still in an unsettled condition. Note, for instance, the fact that the same words are spelt by different writers in different ways."
आपके इस कथन में बहुत ही थोड़ी सत्यता है। दो लेखकों को छोड़ कर और कोई ऐसा नहीं करता। जो दो सज्जन ऐसा करते हैं उनकी इस असंयमशीलता की ख़बर कितने ही लेखकों ने ली है। यदि किसी लेखक ने किसी शब्द को भ्रम या भूल से और तरह लिख दिया तो इसमें भाषा का क्या दोष? क्या बँगला-लेखकों से ऐसी भूलें नहीं होती? सम्पादक महाशय यदि कृपा कर के बँगला की दो चार मासिक पुस्तकों को ध्यान से पढ़ेंगे तो उन्हें उनमें भी इम्ले की ग़लतियाँ मिलेंगी। इम्ले ही की नहीं, एक आध मासिक पुस्तक की तो भाषा पर भी कितने ही दोष-दर्शक लेख बँगला-पत्रों में निकल चुकें हैं। तो क्या इससे बँगला-भाषा की शैली अनिश्चित हो गई? अंगरेज़ी को तो शायद सम्पादक महोदय बँगला से कम महत्व की भाषा न समझते होंगे। फिर क्यों उसके लेखक Favor और Favour तथा Woollen और Woolen दोनों लिखते हैं? और क्यों अमेरिकावाले व्यर्थ वर्णों को शब्दों से निकालते जा रहे हैं? यह तो भाषा की सजीवता