२० समाजवाद : पूँजीवाद चाहें तो न करने दें। वैसे कहा यह जाता है कि जमीन व्यक्तिगत मम्पत्ति नहीं है । कारण, राजा सय जमीन का स्वामी है । वह चाहे जब उस पर अपना अधिकार कर सकता है। किन्तु अाजकल राजा तो ऐसा नाही करता, जमींदार ऐसा करते हैं। इसलिए कानून के अनुसार चाहे जैसा हो, किन्तु वास्तव में ज़मीन पर न्यक्तिगत स्वामित्व है। इस व्यवस्था का मुख्य लाभ यह बताया जाता है कि उससे जमीदार इतने मालदार हो जाते हैं कि वे अतिरिक्त रुपया या पुंजी जमा कर सकते है । यह पूंजी भी व्यक्तिगत सम्पत्ति होती है, इसलिए इस पूंजी से जो उद्योग-धन्धे चलाए जाते हैं, वे भी व्यक्तिगत सम्पत्ति होते है। किन्तु उद्योग-धन्धे श्रम के बिना नहीं चल सकते है, इसलिए उनके मालिकों को अपनी गरज पूरी करने के लिए उन लोगों को काम देना पड़ता है जिनको दरिद्र (Proletarian) कहते है । उन्हें लोगों को इतनी मजदूरी तो देनी ही पड़ती है कि वे जीवित रह सकें और शादियाँ करके अपने ही जैसे अन्य जीव पैदा कर सकें । यह मजदूरी इतनी कम होती है कि वे नियमित रूप से हमेशा काम पर श्राने को बाध्य होते हैं। सभी श्रायोगिक देशों की ऐसी ही दशा है । इस अनर्थकारी पद्धति से श्राय की अत्यधिक विपमता पैदा होती है, इसे सभी लोग म्बीकार करते हैं। वे यह भी स्वीकार करते हैं कि यदि जन-पग्या को उस हद तक मर्यादित रक्खा जाय जिस हद तक मालिक उमे काम दे सकें तब तो दूसरी बात है अन्यथा जन-सख्या की वृद्धि के कारण श्रम सस्ता होता है, लोगों में असन्तोप बढ़ता है, वे भयंकर रोगों में फंसते हैं और कष्ट पाते तथा अपराधी बनते हैं। यदि ऐसा बहुत दिन तक होता रहने दिया जाय तो इसका परिणाम यह होगा कि लोग हिंसात्मक विद्रोह करेंगे। किन्तु इसके विरुद्ध धनी लोग यह दलील देते हैं कि "यदि पूंजीवाद की इस पद्धति के अनुसार पूँजी इकट्ठी न की जायगी तो लोग स्वभावतः इतने स्वार्थी हैं कि वे सारी पंजी को ही चट कर जायंगे और महान सभ्यता के विकास और संरक्षण के लिए कुछ न घोदेंगे ! इस कारण हमको ऐसा करना होता है।"
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