से करते हैं, कारण वे जन-साधारण से इतने अलग रहते हैं कि उनकी आवश्यकताओं को समझते ही नहीं । वे जन-साधारण को और भी कठिन परिश्रम करने और कम वेतन स्वीकार करने के लिए मजबूर करते हैं । वे खेलों, दावतों और तडक–भड़क पर रुपयों के दरिया वहा देते हैं और विज्ञान, कला और शिक्षा पर बहुत कम खर्च करते हैं। वे उत्पादक श्रम के बजाय व्यर्थ के व्यक्तिगत कामों में अपव्यय करते हैं और बड़े परिमाण में दरिद्रता को जन्म देते हैं । वे सैनिक कर्तव्यों से जी चुराते हैं या सेना को देश में अत्याचार करने और विदेशों में लोगों को गुलाम बनाने का
साधन बना लेते हैं। अपनी प्रशंसा की खातिर तथा अपने दुष्कृत्यों पर परदा डालने के लिए वे विश्वविद्यालयों और स्कूलों की शिक्षा को भ्रष्ट कर देते हैं। धर्मसंस्थाओं के साथ भी वे ऐसा ही करते हैं । अपने अस्तित्व को और भी अनिवार्य सिद्ध करने के लिए वे जनसाधारण को दरिद्र, मूर्ख और पराधीन बनाये रखने की चेष्टा करते हैं। अन्त में उनके कर्तव्य उनके हाथों से छीन लेने पड़ते हैं।
जब ऐसा होता है तो इस धनी वर्ग को कायम रखने के सांस्कृतिक और राजनीतिक सारे कारण गायब हो जाते हैं। फिर भी दूसरों के हितों का बलिदान कर अत्यधिक धनियों का एक वर्ग बनाये रखने के पक्ष में एक कारण शेप रह जाता है। व्यवसायी उसको सब से प्रवल कारण समझते हैं। वह कारण यह है कि उससे पूंजी उपलब्ध होती है। वे कहते हैं कि यदि प्राय अधिक समान रूप से वाँटी जायगी तो सभी लोग अपनी सारी आय खर्च कर देंगे और यंत्रों, रेलों, खानों और कारखानों के लिए कुछ न बचेगा । अवश्य ही महान् सभ्यता के लिए रुपया बचाया जाना चाहिए; किन्तु उसके लिए प्रस्तुत पद्धति से बढ़ कर अपन्ययी
पद्धति की कल्पना नहीं की जा सकती। अत्यन्त मालदार लोगों के बारे में कहा जा सकता है कि जबतक खर्च करना सम्भव हो तबतक वे रुपया बचाना शुरू नहीं करते। वे निरंतर नवीन और महँगी फिजूल- ख़र्चियों का आविष्कार करते रहते हैं। इस तरह लोग उन्हें जो रुपया व्यवसाय आदि के लिए देते हैं उसका बड़ा भाग वे भोग-विलासों में