सम्पत्ति के विभाजन की सब से अच्छी योजना क्या है, यह मालूम करने के लिए हमको सभी सम्भव योजनानों पर विचार कर लेना चाहिए।
यह योजना बहुधा पेश की जाती है कि प्रत्येक को, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, सम्पत्ति का उतना भाग मिल जाया करे, जितना उसने
अपने श्रम से पैदा किया हो। वैसे दिखने में यह पहली योजना योजना लीक प्रतीत होती है; किन्तु जब हम इसको न्यावहारिक रूप देने लगते हैं तो अनेक कठिनाइयाँ खड़ी हो जाती है । प्रथम तो यह मालूम करना ही कठिन होता है कि हर एक ने कितना पैदा किया । दूसरे ठोस पदायों का निर्माण ही दुनिया में एकमात्र काम नहीं है। समाज में अधिकतर काम मेवा के रूप में होता है। एक पिन बनाने का कारखाना है। उसमें एक मशीन से लाखों पिने तैयार होती हैं और सैकड़ों श्रादमी काम करते हैं। यह कोई नहीं कह सकता कि मशीन चलाने वाले व्यक्ति के श्रम से कितनी पिनें बनीं; कितनी पिर्ने मशीन के आविष्कारक को और कितनी मशीन के इसीनियर को मिलनी चाहिएं । एकान्त जंगल में रहने वाला कह सकता है कि अपनी कुटिया मैंने खुद वनाई है। उसमें किसी दूसरे का श्रम नहीं लगा; किन्तु सभ्य समाज में रहने वाला कोई व्यक्ति यह नहीं कह सकता कि कुर्सी, मेज़, मोटर श्रादि जिन वस्तुओं का वह नित्य उपयोग करता है, वे उसके अकेले के श्रम से बनी हैं । वास्तव में उन चीज़ों के बनाने में उसके निजी श्रम के अलावा दर्जनों आदमियों का श्रम लगा होता है। ऐसी दशा में जो जितना पैदा करे, उसको उतनाही देने की कोशिश करना ठीक वैसा ही सिद्ध होगा जैसा किसी तालाब में से पानी की