आज हमारे देश में अनेकों पनी विधवायें है जो चक्की पीम कर सुन्वं टुक्दों पर धीर चियहाँ में अपने दिन काटनी हैं! अगणित लोग दिनभर श्रम करने के बाद भी मुश्किल से थाधा पेट पाना पाने हैं। किंतु दूनर्ग घोर मालदार घरानों की सेगरियो सोने से लदी हुई हवेलियों में बिना कुछ काम-धन्धा किये बैठी रहती हैं। उनके बच्चों के विवाह शादियों में हजारों रुपये पात्र होते हैं। जब लोग यह सब देखते हैं तो वे कहते हैं कि ऐसा विभाजन भीषण अन्याय है,दुष्टना है और मना है।
धनियों के अलावा,जिनकी संख्या बहुन थोडी है,सभी अच्छा विमाउन चाहने हैं। उनमें से भी ऐसे सहदय कितने ही हैं जो इस स्थिति की बुराई को स्वीकार करते हैं। अतः हम यह नतीजा निकाल सकते हैं कि ममत्ति के वर्तमान विभाजन के मन्बन्ध में लोगों में श्राम असंतोष है।
रुपया काग़ज़ या धानु का एक टुकड़ा मात्र है,यह सही है किन्तु टममें वर्तमान कानून के कारण असली सम्पत्ति के बरीदने की शक्ति है.इसलिए जब हम धनी लोगों को फिजूलनर्चियों की चर्चा करते हैं नो हमें यह मालूम होता है कि वे धातु या काग़ज़ के उन टुकडों के रूप में देश की असली सम्पत्ति को ही वयांट करते हैं। इससे हने रोप मी आता है। हम कहने लगते हैं कि देश की प्राय में से सेठ रघुमलजी को नो ६००० रुपये रोज मिलते हैं और फत्ता जाट को जो खेती करता है केवल छ:पसे। येचारा सूची रोटियों भी नहीं खा पाता। उसके फटे कुनै में से उसकी नगी हडियाँ नज़र आती है। यह भीपण अन्याय है। इतना कहने भर से काम नहीं चल सकता। हमें ठीक-ठीक मोचना होगा कि देश की थाय में से सेठ रखमलजी को कितना और फत्ता जाट को कितना मिलना चाहिए और क्योंकि रुपयों से ही चीज़ खरीदी जाती हैं इसलिए हमें असली सम्पत्ति अन्न,वस्त्र धादि का उचित बंटवाग करने के लिए सए को ही उचित रूप से चाँटना चाहिए।
किन्तु जब हम सम्पत्ति को बाँटने की बात कहते हैं तो हम को यह जरूर ध्यान में रखना चाहिए कि सम्पत्ति श्रम से पैदा होती है। उसे भी