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सिक्का और उसकी सुविधायें

सिका और उसकी सुविधायें कर्ज चुका देते हैं । इस प्रकार जितना लाभ देनदारों को होता है उतना ही नुकसान लेनदारों को हो जाता है । कहने का श्राशय यह कि बेईमान राजा देश के लिए बड़ा खतरा होता है। किन्तु श्राज तो श्रमजीवी मतदाताओं द्वारा निर्गचित प्रजातंत्री सरकार भी सिक के मामले में ऐसे उपाय काम में लाती हैं कि निदोंप विधवा, जिनके लिए उनके पति वर्षों कष्ट सहकर धीमे की किस्त चुकाते हैं और शाराम की जिंदगी की व्यवस्था करते हैं, भूखों मरने लगती हैं, जीवनभर सम्मानपूर्वक और कठिन सेवा के याद मिली हुई पेन्शनें बेकार हो जाती हैं और बिना किसी योग्यता के एक श्रादमी धनवान बन जाता है तथा दूसरा यिना किसी अपराध के दिवालिया हो जाता है। अाजकल हम सोने के सिक्कों का उपयोग नहीं करते। उनके बजाय हन काग़ज के टुक्रे अर्थात् सरकारी नोटों का उपयोग करते हैं जिन पर बड़े-बड़े अक्षरों में पांच रुपया, दस रुपया, सौ रुपया लिखा होता है। हम इन काग़ज के टुकडों द्वारा अपना कर्ज चुका सकते हैं और हमारे लेनदार को चाहे पसन्द हो या न हो, इन नोटों को लेकर कर्ज का भुगतान कर लेना पड़ेगा। मान लीजिए कि हमारी सरकार को ७ अरब ७० करोड़ रुपया कर्ज देना है। यदि वह चाहे तो ७ अरब ७० करोड़ के काराज के नोट छापकर अपना कर्ज़ चुका सकती है । उसको ऐसा करने से कोई नहीं रोक सकता । इसका नतीजा यह हो सकता है कि उन हजारों नोटों से एक समय चूल्हा जलाने जितना इंधन भी न खरीदा जा सके। यह कोई असम्भव यात नहीं है। ऐसा हाल ही में हो चुका है। गत महायुद्ध के बाद जब विजयी राष्ट्रों ने हर्जाने के नाम पर जर्मनी से शक्ति से अधिक रुपये की मांग की तो उसने अन्धाधुन्ध काग़ज के नोट जारी कर दिये । इसका नतीजा यह हुआ कि जर्मन रुपया बहुत सत्ता हो गया और देनदारों ने अपने लेनदारों के कर्ज का बड़ी आसानी से भुगतान कर दिया। इसमें जर्मन लोगों और विदेशियों को समान रूप मे हानि-लाभ उठाना पड़ा । जो लोग लेनदार थे वे घाटे में रहे और जो देनदार थे वे नफे में । जर्मन कारखानेदारों ने अपना सारा कर्ज चुका