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समाजवाद:पूँजीवाद

तो इससे हमें यह समझ लेना चाहिए कि जो कुछ हमारी पुरानी प्रथाओं के अनुसार या वर्तमान कानून-कायदों के अनुसार हमारे हिम्सों में आया हुआ है उस में परिवर्तन होगा। ये पुरानी प्रथाएं और कायदे-कानून ही जब अस्थायी हैं तो फिर इनके अनुसार होने वाला आय का हमारा विभाजन कैसे स्थायी हो सकता है, विशेषकर उस दशा में जब हम उससे सन्तुष्ट भी नहीं हैं ? इसलिए हमारा इस प्रश्न पर फिर विचार करने का दाज़ा हमें खुला ही समझ कर चलना चाहिए।

जव कानून-कायदों के परिवर्तन से हमारी आय में घटा-बढ़ी होती है और आगे भी होगी तो अब हमें यह मालूम करना चाहिए कि वे कौन से परिवर्तन है जो दुनिया को निवास करने के लिए श्रेष्ठतर स्थान बना देंगे। साथ ही हमें यह भी तय करना चाहिए कि ऐसे कौन से परिवर्तन हैं जो हमारे लिए या दूसरों के लिए घातक हैं और जिनका हमको प्रतिरोध करना चाहिए । इस तरह हम किसी निर्णय पर पहुंच जाएंगे और वह लोकमत के रूप में एक प्रेरक शक्ति बन जाएगा जो किसी भी आन्दोलन को आगे बढ़ाने के लिए आवश्यक होती है।

किन्तु कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति के लिए नहीं सोच सकता, जैसे एक व्यक्ति दूसरे के लिए खा नहीं सकता। हर एक को अपने विचार स्वतन्त्र बनाने की ज़रूरत है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि हमें अन्य सब लोगों के विचारों की ओर से आँखें मूंद लेनी चाहिए। ऐसी कितनी ही बातें होती हैं जिनमें दूसरों की सम्मतियों पर निर्भर रहना होता है। अतः दूसरे लोगों ने जो कुछ सोचा है हमें उससे भी लाभ उठाना चाहिए।

हर एक आदमी को खुद सोचने की ज़रूरत इसलिए है कि वास्तव में निर्णीत प्रश्न कमी निर्णत नहीं होते । उनके उत्तर सदा अधूरे और पूर्ण सत्य से दूर होते हैं। हम नियमों और संस्थाओं का निर्माण करते हैं , इसलिए कि उनके बिना हम समाज में नहीं रह सकते; किन्तु चूंकि हम स्वयं अपूर्ण हैं, इसलिए हम उन संस्थानों को पूर्ण नहीं बना पाते । यदि हम पूर्ण संस्थानों का निर्माण कर भी लें तो उन्हें नित्य और