मानते हैं वे उद्योग-धन्धों में इस शर्त पर पूँँजीवादी तरीका जारी रहने दे सकते हैं कि मुनाफे का ज्यादातर हिस्सा मजदूरों को मिल जाया करे। भाज की थपेक्षा उस दशा में पूंजीवाद को कायम रखना ज्यादा आसान होगा । हरएक देश में ध्रमजीवियों की संरया ही अधिक होती है, अतः इस व्यवस्था के अधीन ज्यादातर आदमियों को सन्तुष्ट रक्खा जा सकेगा। जिस सरकार को अधिकतर मतदाताओं का समर्थन प्राप्त हो, वह भूस्वामियों और पूँँजीपतियों में आय-कर और अतिरिक्त प्राय-कर आसानी से वसूल कर सकती है। वह पैतृक सम्पत्ति पर बेहिसाव कर लगाकर, कारखानों के कानून बना कर मजदूरियाँ निश्चित करने के लिए सम्मितियों और कीमतें स्थिर करने के लिए कमीशन नियुक्त करके तथा जिन व्यवसायों में मज़दूरियाँ कम हों उनको पार्थिक सहायता
देने के लिए प्रायकर का उपयोग करके राष्ट्रीय आय को इस प्रकार
विभाजित कर सकती है कि आजकल के धनी कंगाल और मज़दूर धनी हो जाये । जय पार्लमेण्ट की लगाम सम्पत्तिवानों के हाथ में थी, तब उन्होंने मजदूरों से अधिक-से-अधिक लाभ उठाने की कोशिश की । अब यदि प्राय को समान रूप से यौटने का सिद्धान्त स्वीकार न किया गया तो मज़दूर-वर्ग सम्पत्तिवानों से अधिक-से-अधिक रुपया छीनने की कोशिश क्यों न करेगा? आज तो पूंजीपति समाजवाद से रक्षा पाने के लिए व्यवसाय संघों की श्राद ले रहे हैं, किन्तु वह समय पा रहा है जब पूँँजीवादियों को मज़दूर-पूंजीपतियों से रक्षा पाने के लिए समाजवाद की पुकार मचानी पड़ेगी।
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पूँजी और श्रम का संघर्ष