१३२ समाजवाद : पूंजीवाद यह व्यर्थ सिद्ध हुा । कारण, संघ-संगठन से बाहर के मजदूर काफी संख्या में न मिलते थे। उन्हें संघों के सदस्यों को ही काम पर रखना पडा; किन्तु संघों के सदस्यों ने दूसरे मजदूरों के साथ काम करने से इन्कार कर दिया। मालिकों ने, मजदूरों के एक प्रतिनिधि के साथ बातचीत न करके उनमें से एक-एक के साथ बातचीत करने की कोशिश भी की; किन्तु वे इतने मजदूरों से पृथक-पृथक वातचीत करने में असमर्थ थे। अन्त में उन्होंने संघों के मंत्रियों के साथ काम की शत तय करना स्वीकार कर लिया। इस प्रकार संघों को मालिकों की स्वीकृति मिली । पीछे उन्हें कानूनी संरक्षण भी मिला जो इतना अधिक था जितना दूसरी मामूली संस्थाओं को प्राप्त न था । संघों की शक्ति धीरे- धीरे इतनी बढ़ी कि उनके साथ व्यवहार करने के लिए मालिकों को भी अपने सघ स्थापित करने को मजबूर होना पड़ा। यद्यपि कुछ लढाइयाँ मजदूरों को सताने के कारण होती है, किन्तु प्रायः झगडे, जिनमें हार या जीत अधिक महत्व रखती है, मजदूरियों और काम के घन्टों के कारण होते हैं । इसको समझने के लिए हमें यह जान लेना आवश्यक है कि मजदूरियां दो प्रकार से दी जाती हैं, एक तो समय के हिसाब से और दूसरी काम के हिसाब से । जो मजदूरियों समय के हिसाब से दी जाती है उन में मजदूरियों की मासिक, साप्ताहिक या दैनिक दर निश्चित की जाती है। काम चाहे कितना ही कम या अधिक क्यों न हो। और जो मजदूरियाँ काम के हिसाब से दी जाती हैं उनमें काम का परिमाण नियत होता है और उसके लिए नियत मजदूरी मिलती है । यंत्रों के आविष्कार से पहिले मालिक काम के मुताविक मजदूरियां देना और मजदूर समय के हिसाब से मजदूरियाँ लेना पसन्द करते थे। किन्तु यंत्रों के श्राविष्कार के बाद स्थिति बदल गई, मालिक जब काम के मुताबिक मजदूरियाँ देते तो वे इस बात का ख़याल रखते थे कि मजदूरनियत काम को काफ़ी समय में पूरी मेहनत करने पर ही पूरा कर सकें। इस प्रकार वे वास्तव में समय के हिसाब से दी हुई मजदूरियाँ ही होती थीं । किन्तु
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