पूंजी के अत्याचार ११६ और सुख-सामग्री प्राप्त कर सकते हैं। उनके कारिन्दे जमीन का किराया वसूल करते हैं और उनके नामों पर बैंकों में जमा करा देते है। इसी तरह कम्पनियां भी उनकी पंजी का श्रद्धवार्षिक किराया उनके नामों पर बैंकों में दाल देती हैं। उनको तो सिर्फ चैकों पर दस्तखत भर करने होते हैं जिनके द्वारा वे हरएक वस्तु की कीमत चुकाते हैं। वे अपने निठल्लेपन के पक्ष में यह दलील दे सकते हैं कि उनके पूर्वजों ने तो उत्पादक श्रम क्यिा था, मानो औरों के पूर्वजों ने तो उत्पादक श्रम किया ही नहीं था ! सम्भव है उनके पूर्वजों ने खेतों में हल चलाया हो और अधिक धनी बनने के लिए अपनी पंजी को जमीन में लगाने के नये तरीकों का आविष्कार किया हो; किन्नु था जब उनके वंशजों को पता चला कि उनके लिए यह सब कष्ट तो दूसरे लोग ही कर देंगे तो उन्होंने जमीन और पूंजी को किराये पर उठाना शुरू कर दिया और बैठे-बैठे खाने लगे। , जो लोग इतना अधिक श्रम करते हैं और जिनको कम मनोरजन मिलता है उनकी दृष्टि में धनिकों का निठल्लापन अत्यन्त सुखकर प्रतीत हो सकता है। ये इससे बढ़कर कल्पना नहीं कर सकते कि जीवन एक लम्बी छुट्टी हो, किन्तु इस स्थिति में यह खराबी है कि जब धनिकों को अपनी भाजीविका स्वयं कमानी पड़ती है तो वह उनको बच्चों की तरह निस्सहाय बना देती है; क्योंकि उन्हें कुछ पता नहीं होता कि जमीन कैसे जोती जाती है, या कोई काम कैसे दिया जाता है। यदि भूखे लोग न हाँ तो उन्हें कहना पड़ेगा कि हम होद नहीं सकते और भीख मांगने में हमें शर्म मालूम होती है।' ज्या-ज्यों मभ्यता बढ़ती जाती है त्या-त्या असहायावस्था वहती जानी है। गांवों में हम ऐसे श्रादमी मिल सकते हैं जो चीजें बना सकते हैं और जिन चीजों को बना सकते हैं उनके लिए सामग्री खरीद सकते हैं और टनको बेच भी सकते हैं । किन्नु शहरों में ऐसे लाखों धनी और मजदूर मिलेंगे जो कोई चीज यनाना नहीं जानते । केवल कुछ लोग होते हैं जिनको मध्यम वर्ग के लोग कहते हैं । वे ही बौद्धिक, साहित्यिक और कलात्मक धन्धों के अतिरिक्त पुँजीपति देशो का प्रबन्ध, संचालन और
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