पृष्ठ:समाजवाद और राष्ट्रीय क्रान्ति.pdf/६९

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कृषक-विद्रोही के रूप में व्यक्त हो रहा था। उत्पादन में और कम उपनाक जमीन के जोतने में कमी आ गई थी। अकेले संयुक्तप्रान्त मे छोड़े गये भूभागों की संख्या २६८६० से बढ़कर ७१४३० हो गई थी। परन्तु कृषक-वर्ग के भारी कष्टों के होते हुए भी गवर्नमेट ने २५६२८४ मामलों में बल-पूर्वक भूमि-कर वसूल करने की आज्ञा दी। देहात मे असन्तोष का पारावार न रहा, और अनेक स्थानों पर सरकार से सहारा पाने के लिए लगानबन्दी के आन्दोलन चलाये गये। संयुक्तप्रान्त मे स्थिति इतनी गम्भीर हो गई कि सरकार को अन्त मे कृषकों के लिए स्थाई रूप से लगान कम करने को बाध्य होना पड़ा। यह देहाती संकट उस व्यापक पूजीवादी संकट का एक भाग था जो अपूर्ण र अस्थार्य रूप से टलकर भी ज्यो का त्यों बना रहता है, और जिसके टलने की पूँजीवादी सामाजिक व्यवस्था मे कोई सम्भावना नहीं है । दीर्धकालीन अार्थिक मन्दी मे कृपक-आन्दोलन को भारी बल मिला । बंगाल और मद्राम में कृषक संगठन तेजो से बनने लगे। लगान और कर कम कराने और ऋण से राहत पाने के लिए कृषक-संघर्प अधिक बहुतायत मे होने लगे । सन् १९३५ के भारतीय ऐक्ट के अनुसार बहुत मे कृपको को प्रथम बार वोट देने का अधिकार मिला, और इसमे उनमें एक नवीन आत्मविश्वास हा गया। जब उनके अत्याचारी सामन्त स्वामी वोट पाने के लिए उनकी चापलूसी करने लगे तो उन्हें [ क्षण भर को ही सही ] यह अनुभव होने लगा कि उनकी भी देश में कुछ हस्ती है। चुनावों के समय कृपक समुदायों में एक आत्मनिर्भरता की लहर दौड़ गई और उन्होंने कांग्रेस की, जिसने अपने निर्वाचन घोषणा-पत्र में कृषकों की तात्कालिक माँग सम्मिलित कर ली थी, अपने वोट प्रदान किये । काँग्रेस ने उनकी माँगो का पक्ष लेकर, और निरन्तर उनकी सेवा करके उनका विश्वास और सहयोग प्राप्त कर लिया था। उसने सफलतापूर्वक जन-समुदाय के आर्थिक