पृष्ठ:समाजवाद और राष्ट्रीय क्रान्ति.pdf/३५

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) भारत में ब्रिटिश शासन का इतिहास इस प्रकार के विप्लवों से भरा पड़ा है। जब-जब गवर्नमेण्ट ने देश की भूमि-व्यवस्था में कोई कठोर परिवर्तन किये, अथवा जब-जब गाँवों की जनता पर कोई मर्माघात हुआ, तब-तब कृषकों ने विद्रोह किया। प्रचार और संगठन का कार्य तो कृषकों में तभी होता है जब निःस्वार्थ और उच्चाशय व्यक्ति उनके हितो को अपना लें, अथवा जब राष्ट्रीय आन्दोलन को शक्ति प्राप्त करने के लिए उनकी ओर मुड़ना पड़े । अन्धविश्वासों में डूबे हुए और क्रूरता से कुचले हुए ये भोले लोग अत्याचार से त्राण पाने का एक ही मार्ग जानते है --आँख मूंदकर उपद्रव में कूद पटना ; और तय गर्नमेण्ट उन्हे सहज ही दवा देती है। केवल क्रान्तिकारी विचारवाले उनके हितेषी ही उन्हें अनुशासनबद्ध कार्यवाही के लिा संगठित कर सकते है। जनसमुदाय महत्त्वपूर्ण है भविष्य में केवल एक ही वर्ग होगा---जनता । रूस के सामाजिक प्रयोग से शनैः-शनैः जनता विश्व के रंगमंच पर प्रधान पात्र के रूप में अवतरित हो रही है। भारत का जनतन्त्रीय आन्दोलन भी इस बात की अपेक्षा करता है कि निम्नमध्यमवर्ग और जनसाधारण मिलकर एक ही जायँ । राष्ट्रीय आन्दोलन के सामाजिक आधार को अधिक व्यापक बनाने के लिए हमे जनसाधारण के हित में अपनी आर्थिक नीति निर्धारित करनी पड़ रही है। समाजवाद आ रहा है, उससे हम बच नहीं सकते । पाने वाले दिनों में कांग्रेस उग्रपरिवर्तनवादी आर्थिक कार्यक्रमों पर अधिकाधिक विचार करेगी और उदार राजनीतिज्ञ और सरकार एक योजनात्मक अर्थ व्यवस्था बनाने और जनता के जीवन स्तर को ऊँचा उठाने के साधनों की बात करेंगे। आज कांग्रेस समाजवादी कार्यक्रम को काट-छाँट कर भले ही अपनाये,