पृष्ठ:समाजवाद और राष्ट्रीय क्रान्ति.pdf/२६५

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( २३०) में स्पष्टता आती है और यदि विचार-पद्धतियों को जीवन से अछूता रखा जाय तो वे जड़ीभूत हो जाती हैं । एक विशेष खतरा अाज हमारे ऊपर मँडरा रहा है । प्रजातन्त्र किसी संस्था के यादों पर ही नहीं, बल्कि स्वरूप पर भी निर्भर करता है। कांग्रेस का विकास अधिकाधिक जनतन्त्र की दिशा में हुश्रा है। परन्तु पिछले कुछ समय से कच्छ विपरीत प्रगति हुई है । वर्तमान युग व्यक्ति को छोड़कर संस्था पर अधिक बल देने लगा है और समूहवादी (Collectirist) प्रवृत्तियाँ जोरों पर है । उससे प्रजातन्त्रीय स्वाधीनता कम होती है और तानाशाही प्रवृत्तियाँ अप्रत्यक्ष रूप से विकसित होती है । ठोस संगठन और अनुशासन के नाम में हमें एक ऐसी सीमित और घटाटोप संस्था नही बनानी चाहिये, जो श्रागे चलकर तानाशाही राजनीतिक दावपेंचों का साधन बन जाय । जो संस्था सत्ता प्राप्ति के लिए संघर्ष करती है, वह जो राज्य स्थापित करेगी, उसपर अपने स्वरूप की छाप भालेगी । इसका प्रत्यक्ष उदाहरण कोमिन्तांग है । यदि कोई राष्ट्रीय संस्था प्रजातन्त्र लाना चाहती है, तो उसके भीतर उन समूहों के लिए अवश्य स्थान होगा जिनका उसके साथ आध्यात्मिक तादात्म्य है और जो उसके निर्णयों को मानने को तैयार है। इसके पहिले कि हम यह तय कर सकें कि कांग्रेस का नवीन संगटन स्वरूप क्या होना चाहिये, हमें इन प्रश्नों में से कछेक उत्तर कर देना है। एक फल पद नीति तभी निर्धारित की जा सकती है जब हम अवसर के अनुकूल उपर उठकर साहस और दृष्टि. विशालता का परिचय दें, जिससे अवसरों का पूरा लाभ उटाया जा सके। सबसे अधिक हमें जनसाधारण को संकीर्णमना और स्वार्थी न समझना चाहिये उनका सिद्धान्तवाद सामाजिक प्राधिकार वंचितों