पृष्ठ:समाजवाद और राष्ट्रीय क्रान्ति.pdf/२५४

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( २२७ ) जो भारतीयों के साथ सामाज्य के दासों का सा व्यवहार करता है, वह भी राष्ट्रमंडल का सदस्य है । एक और ठोस तर्क यह है कि भारत ब्रिटिश अर्थ-व्यवस्था पर बँधा हुश्रा नहीं रहना चाहता वह अपने अलग अार्थिक और मामाजिक ढांचों का विकास करना चाहता है । वह ब्रिटिश वैदेशिक नीति का पिछलग्गू बनने के भी विरुद्ध है । यद्यपि सामाज्य की वैदेशिक नीति निर्धारित करने में उपनिवेशों का भी हाथ रहता है, परन्तु उस नीति को कार्यान्वित करने का साधन ब्रिटिश वैदेशिक कार्यालय है। भारत का दर्जा और उसके हित इस बात की अपेक्षा करते हैं कि वह अपनी स्वतंत्र वैदेशिक नीति विकसित करे । उसे दक्षिण-पूर्वी एशिया की रक्षा में महत्वपूर्ण भाग अदा करना है । उले शान्ति के लिए कार्य करना पड़ेगा, इसलिर ही नहीं कि उसकी परम्पराये ऐसी रही हैं, वल्कि इसलिए भी कि उसके राष्ट्रीय हितो के लिए शान्तिपूर्ण नीति पर चलना आवश्यक होगा। अनेक वर्षों तक स्वतन्त्र भारत की सम्पूर्ण कार्य-शक्ति रचना- त्मक कार्य मे निमग्न रहेगी, और स्वभावतः युद्ध जैसी बाहरी व्याधि उसकी सामाजिक और आर्थिक उन्नति को स्थगित कर देगी । अतः उसके लिए अपने पडामियों से ही नहीं अपितु सारी बड़ी शक्तियों से शान्तिपूर्ण सम्बन्ध बनाये रखना आवश्यक होगा वह प्रत्येक देश से अनाक्रमण समझौते करेगा, और औरों की लड़ाइयों में पड़ने से दूर रहेगा। फिर ईरान, वर्मा, मलाया, और अरब देशों के बारे में ब्रिटेन के इरादे स्पष्ट नहीं हैं। उसका उनके प्रति वर्तमान रवैया शुभसूचक नहीं है। पुरानी लूटमार राजनीति अब भी चल रही है । इङ्गलैण्ड ईरान में अपनी तेल-सुविधाओं को नहीं छोड़ना चाहता और फाग्मि की खाड़ी पर अपना सामरिक