पृष्ठ:समाजवाद और राष्ट्रीय क्रान्ति.pdf/२०८

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( १८१ ) प्रत्येक युद्ध का पृथक रूप से उस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में अध्ययन किया जाता है जिसमें वह छिड़ना है। मार्क्सवाद यह नहीं पूछता कि युद्ध का छेड़ने वाला कौन है बल्कि यह पूछता है कि किस परिस्थिति समूह में युद्ध हुआ है। वर्तमान युद्ध पूँ जीशाही, सामाज्य- वाद और युद्धरत देश सदों को हड़पने की नीति का परिणाम है । राजनीति की चालो को दूसरे ( जोर-जबरदस्ती के) माधनों द्वारा चलाते रहने का नाम युद्ध है। यथार्थ में यह युद्ध वर्षों पहिले प्रारम्भ हुअा था, और सितम्बर सन् १६३६ की बात उसकी एक आगे की श्रृंखला मात्र थी। इस युद्ध का स्वरूर इसके प्रमुख प्रतिद्वन्दियों की आधारभून नीतियों और लक्ष्यों को ध्यान में रख कर ही निर्धारित हो सकता है। इसके प्रमुग्न प्रतिद्वन्दी मल्ल एक योर इजलैड और अमेरिका हैं और दूसरी ओर जर्मनी, इटली और जापान ! ये सब साम्राज्यवादी हैं । पहिलः दल वैभव से छके हुए राष्ट्रों का है और दूसरा उन राष्ट्रों का, जो बमुधा-विभाजन की दोड़ में पीछे रह गये और इसलिए अतृप्त हैं। पहिला समूह अपने साम्राज्य को बनाये रखने के लिए लड़ रहा है और दूमग अपनी भूमि सीमाओं को विस्तृत करने के लिए । वर्तमान शुद्ध साम्राज्यवादी शक्तियों को नवीन मतुलन के अनुसार वसुधा को तिर से विभाजित कर नेके के लिए हो रहा है। केवल इस तथ्य से कि रूस जर्मन अाक्रमण का शिकार बन गया है, युद्ध का स्वरूप नहीं बदल जाता । यह कहना ठीक होगा कि लस युद्ध में प्रमुन्त्र न होकर, केवल नाजी हमले से अपनी रक्षा करने के उद्देश्य से लड रहा है । अतः उसे उस अटलाएिटक घोषणापत्र में अपनी सहमति देनी पड़ी जो एक सीमित क्षेत्र पर ही ला होगा और जो उन लियांतों पर आधारित नहीं है जिनके ऊपर ही स्थायी और न्याय- पूर्ण शांति स्थापित हो सकती है। स्टालिन ने यह भी स्पष्ट कर