दिक़ लेकर निकलेंगे, या पुलीस के डंडों से सिर और हाँथ-पांँव तुड़वा लेंगे, तो बुद्धि ठिकाने आयेगी। अभी जय-जयकार और तालियों के स्वप्न देख रहे होंगे!
रूपमणि सामने आकाश की ओर देख रही थी। नीले आकाश में एक छाया-चित्र-सा नज़र आ रहा था- -दुर्बल, सूखा हुआ, नग्न शरीर, घुटनों तक धोती, चिकना सिर, पोपला मुंँह, तप, त्याग और सत्य की सजीव मूर्ति ।
आनन्द ने फिर कहा-अगर मुझे मालूम हो कि मेरे रक्त से देश का उद्धार हो जायगा, तो मैं आज उसे देने को तैयार हूँ : लेकिन मेरे जैसे सौ- पचास आदमी निकल ही आयें, तो क्या होगा। प्राण देने के सिवा और तो कोई प्रत्यक्ष फल नहीं दीखता।
रूपमणि अब भी वही छाया-चित्र देख रही थी। वह छाया मुसकिरा रही थी, वह सरल-मनोहर मुसकान, जिसने विश्व को जीत लिया है।
आनन्द फिर बोला-जिन महाशयों को परीक्षा का भूत सताया करता है, उन्हें देश का उद्धार करने की सूझती है। पूछिए, आप अपना उद्धार तो कर ही नहीं सकते, देश का क्या उद्धार कीजिएगा।
इधर फे़ल होने से उधर के डण्डे फिर भी हलके हैं !
रूपमणि की आँखें आकाश की ओर थीं ! छाया-चित्र कठोर हो गया था।
आनन्द ने जैसे चौंककर कहा-हाँ, आज बड़ा मज़ेदार फिल्म है। चलती हो ? पहले शो में लौट आयें।
रूपमणि ने जैसे आकाश से नीचे उतरकर कहा-नहीं, मेरा जी नहीं चाहता।
आनन्द ने धीरे से उसका हाथ पकड़कर कहा-तबीयत तो अच्छी है ?
रूपमणि ने हाथ छुड़ाने की चेष्टा न की। बोली-हां, तबीयत में क्या हुआ है ?
'तो चलती क्यों नहीं ,
'आज जी नहीं चाहता।
'तो फिर मैं भी न जाऊँगा।"