यह पृष्ठ प्रमाणित है।
आहुति
[ ९७
 

करता था और बेवकूफ बनाता था। विशंभर में उससे बहस करने की सामर्थ्य न थी। सूर्य के सामने दीपक की हस्ती ही क्या ? आनन्द का उस पर मानसिक आधिपत्य था। जीवन में पहली बार उसने उस आधिपत्य को अस्वीकार किया था और उसी की शिकायत लेकर आनन्द रूपमणि के पास आया था। महीनों विशंभर ने आनन्द के तर्क पर अपने भीतर के आग्रह को टाला ; पर तर्क से परास्त होकर भी उसका हृदय विद्रोह करता रहा। बेशक उसका यह साल ख़राब हो जायगा। सम्भव है, उसके छात्र-जीवन ही का अन्त हो जाय, फिर इस १४-१५ वर्षों की मेहनत पर पानी फिर जायगा, न खुदा ही मिलेगा न सनम का विसाल ही नसीब होगा। आग में कूदने से क्या फ़ायदा। युनिवर्सिटी में रहकर भी तो बहुत कुछ देश का काम किया जा सकता है। आनन्द महीने में कुछ न कुछ चंदा जमा कर देता है। दूसरे छात्रों से स्वदेशी की प्रतिज्ञा करा ही लेता है। विशंभर को भी आनन्द ने यही सलाह दी। इस तर्क ने उसकी बुद्धि को तो जीत लिया ; पर उसके मन को न जीत सका। आज जब आनन्द कॉलेज गया तो विशंभर ने स्वराज्य-भवन की राह ली। आनन्द कॉलेज से लौटा, तो उसे अपनी मेज़ पर विशंभर का पत्र मिला। लिखा था-


'प्रिय आनन्द,

मैं जनता हूँ कि मैं जो कुछ करने जा रहा हूँ वह मेरे लिए हितकर नहीं है; पर न-जाने कौन-सी शक्ति मुझे खींचे लिये जा रही है। मैं जाना नहीं चाहता; पर जाता हूँ, उसी तरह जैसे आदमी मरना नहीं चाहता; पर मरता है, रोना नहीं चाहता; पर रोता है। जब सभी लोग, जिन पर हमारी भक्ति है, ओखली में अपना सिर डाल चुके, तो मेरे लिए भी अब कोई दूसरा मार्ग नहीं है। मैं अब और अपनी आत्मा को धोखा नहीं दे सकता। युनिवर्सिटी के लिए आत्मा की हत्या नहीं कर सकता। यह इज्जत का सवाल है, और इज्ज़त किसी तरह का समझौता (Compromise) नहीं कर सकती।

तुम्हारा—

विशंभर'