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आहुति

आनन्द ने गद्देदार कुरसी पर बैठकर सिगार जलाते हुए कहा-आज विशभर ने कैसी हिमाकत की ! इम्तहान करीब है और आप आज वालंटियर बन बैठे। कहीं पकड़ गये, तो इम्तहान से हाथ धोयेंगे। मेरा तो ख़याल है कि वज़ीफ़ा भी बन्द हो जायगा।

सामने दूसरे बेंच पर रूपमणि बैठी एक अखबार पढ़ रही थी। उसकी आँखें अखबार की तरफ़ थीं; पर कान आनन्द की तरफ़ लगे हुए थे। बोली-यह तो बुरा हुआ। तुमने समझाया नहीं ? आनन्द ने मुँह बनाकर कहा-जब कोई अपने को दूसरा गांधी समझने लगे, तो उसे समझाना मुशकिल हो जाता है । वह उलटे मुझे समझाने लगता।

रूपमणि ने अख़बार को समेटकर बालों को सँभालते हुए कहा-तुमने मुझे भी तो नहीं बताया, शायद मैं उसे रोक सकती।

आनन्द ने कुछ चिढ़ कर कहा—तो अभी क्या हुआ, अभी तो शायद कांग्रेस-ऑफ़िस ही में हो । जाकर रोक लो ।

आनन्द और विशंभर दोनों ही युनिवर्सिटी के विद्यार्थी थे। आनन्द के हिस्से में लक्ष्मी भी पड़ी थी, सरस्वती भी ; विशंभर फूटी तकदीर लेकर आया था। प्रोफ़ेसरों ने दया करके एक छोटा-सा वज़ीफ़ा दे दिया था। बस, यही उसकी जीविका थी। रूपमणि भी साल भर पहले उन्हीं की समकक्ष थी; पर इस साल उसने कॉलेज छोड़ दिया था। स्वास्थ्य कुछ बिगड़ गया था। दोनों युवक कभी-कभी उससे मिलने आते रहते थे. । आनन्द आता था उसका हृदय लेने के लिए ; विशभर आता था यों ही। जी पढ़ने में न लगता, या घबड़ाता, तो उसके पास आ बैठता था। शायद उससे अपनी 'विपत्ति-कथा कहकर उसका चित्त कुछ शान्त हो जाता था। आनन्द के सामने कुछ बोलने की उसकी हिम्मत न पड़ती थी। आनन्द के पास उसके लिए सहानुभूति का एक शब्द भी न था। वह उसे फटकारता था, ज़लील