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जेल
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वह श्राश्रय कहाँ था ? यही वह अवसर थे, जब क्षमा भी प्रात्म-समवेदना के लिए श्राकुल हो जाती थी। यहाँ मृदुला को पाकर वह अपने को धन्य मान रही थी ; पर यह छाँह भी इतनी जल्द हट गई !

क्षमा ने व्यथित कंठ से कहा-यहाँ से जाकर भूल जाओगी मृदुला !तुम्हारे लिए तो यह रेलगाड़ी का परिचय और मेरे लिए तुम्हारे वादे उसी परिचय के वादे हैं। कभी कहीं भेंट हो जायगी, तो या तो पहचानोगी ही नहीं, या ज़रा मुसकिराकर नमस्ते करती हुई अपनी राह चली जाओगी। यही दुनिया का दस्तूर है। अपने रोने से छुट्टो ही नहीं मिलती, दूसरों के लिए कोई क्योंकर रोये। तुम्हारे लिए तो मैं कुछ नहीं थी, मेरे लिए तुम बहुत अच्छी थीं। मगर अपने प्रियजनों में बैठकर कभी-कभी इस अभागिनी को ज़रूर याद कर लिया करना। भिखारी के लिए चुटकी भर घाटा ही बहुत है।

दूसरे दिन मैजिस्ट्रेट ने फैसला सुना दिया। मृदुला बरी हो गई। संध्या समय वह सब बहनों से गले मिलकर, रोकर-रुलाकर, चली गई, मानो मैके से विदा हुई हो।

( २ )

तीन महीने बीत गये ; पर मदुला एक बार भी न आई। और कैदियों से मिलनेवाले आते रहते थे, किसी-किसी के घर से खाने-पीने की चीज़ और सौगातें आ जाती थीं, लेकिन क्षमा का पूछनेवाला कौन बैठा था ? हर महीने के अंतिम रविवार को वह प्रातःकाल से ही मृदुला की बाट जोहने लगती। जब मुलाकात का समय निकल जाता, तो ज़रा देर रोकर मन को समझा लेती; जमाने का यही दस्तूर है !

एक दिन शाम को क्षमा संध्या करके उठी थी कि देखा, मदुला सामने चली आ रही है। न वह रूप-रंग है न वह कांति। दौड़कर उसके गले से लिपट गई और रोती हुई बोली-यह तेरी क्या दशा है मृदुला ! सूरत ही बदल गई। क्या बीमार है क्या ?

मदुला की आँखों से आंसुओं की झड़ी लगी हुई थी। बोली-बीमार तो नहीं हूँ बहन ! विपत्ति से बिंधी हुई हूँ। तुम मुझे ख़ ब कोस रही होगी।