ग़धा नहीं हूँ कि गुलामी की ज़िन्दगी पर गर्व करूँ; लेकिन परिस्थिति से
मज़बूर हूँ।
बाजे की आवाज़ कानों में आई। वीरबल सिंह ने बाहर जाकर पूछा। मालूम हुआ, स्वराज्यवालों का जुलूस आ रहा है। चटपट वर्दी पहनी, साफा बांधा और जेब में पिस्तौल रखकर बाहर आये। एक क्षण में घोड़ा तैयार हो गया। कांस्टेबल पहले ही से तैयार बैठे थे। सब लोग डबल मार्च करते हुए जुलूस की तरफ़ चले।
( ४ )
लोग डबल मार्च करते हुए कोई पन्द्रह मिनट में जुलूस के सामने पहुँच गये। इन लोगों को देखते ही अगणित कंठों से 'वन्दे मातरम्' की एक ध्वनि निकली, मानो मेघमण्डल में गर्जन शब्द हुआ हो, फिर सन्नाटा छा गया। उस जुलूस में और इस जुलूस में कितना अन्तर था! वह स्वराज्य के उत्सव का जुलूस था, यह एक शहीद के मातम का। तीन दिन के भीषण ज्वर के और वेदना के बाद आज उस जीवन का अन्त हो गया, जिसने कभी पद की लालसा नहीं की, कभी अधिकार के सामने सिर नहीं झुकाया। उन्होंने मरते समय वसीयत की थी कि मेरी लाश को गंगा में नहलाकर दफ़न किया जाय और मेरे मज़ार पर स्वराज्य का झंडा खड़ा किया जाय। उनके मरने का समाचार फैलते ही सारे शहर पर मातम का पर्दा-सा पड़ गया ! जो सुनता था, एक बार इस तरह चौंक पड़ता था, जैसे उसे गोली लग गई हो और तुरन्त उनके दर्शनों के लिए भागता था। सारे बाज़ार बन्द हो गये, इक्को और तांगों का कहीं पता न था जैसे शहर लुट गया हो। देखते-देखते सारा शहर उमड़ पड़ा। जिस वक्त जनाज़ा उठा, लाख-सवा लाख आदमी साथ थे। कोई आंख ऐसी न थी, जो आँसुओं से लाल न हो ।
वीरबलसिंह अपने कांस्टेबलों और सवारों को पांँच-पांँच गज के फासले
पर जुलूस के साथ चलने का हुक्म देकर खुद पीछे चले गये। पिछली सफ़ों
में कोई पचास गज़ तक महिलाएँ थीं। दारोगा ने उनकी तरफ़ ताका।
पहली ही कतार में मिट्टनबाई नज़र आई। वीरबल को विश्वास न आया।
फिर ध्यान से देखा, वही थीं। मिट्टन ने उनकी तरफ एक बार देखा और