भी तैयार थे। कितनों ही के हाथों में लाठियां थीं, कितने ही जेबों में पत्थर भरे हुए थे। न कोई किसी से कुछ बोलता था, न पूछता था। बस सब-के-सब मन में एक दृढ़ संकल्प किये लपके चले जा रहे थे, मानो कोई घटा उमड़ी चली आती हो।
इस दल को दूर से देखते ही सवारों में कुछ हलचल पड़ी। बीरबलसिंह के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं। डी० एस० पी० ने अपनी मोटर आगे बढ़ाई। शांत और अहिंसा के व्रतधारियों पर डण्डे बरसाना और बात थी, एक उन्मत्त दल से मुकाबला करना दूसरी बात। सवार और सिपाही पीछे खिसक गये।
इब्राहिम की पीठ पर घोड़े ने टाप रख दी। वह अचेत ज़मीन पर पड़े थे। इन आदमियों का शोर-गुल सुनकर आप ही आप उनकी आँखें खुल गई। एक युवक को इशारे से बुलाकर कहा -- क्यों कैलाश, क्या कुछ लोग शहर से आ रहे हैं ?
कैलाश ने उस बढ़ती हुई घटा की ओर देखकर कहा -- जी हाँ, हज़ारों आदमी है।
इब्राहिम-तो अब ख़ैरियत नहीं है। झण्डा लौटा दो। हमें फ़ौरन लौट चलना चाहिए, नहीं तूफ़ान मच जायगा। हमें अपने भाइयों से लड़ाई नहीं करना है। फौरन् लौट चलो।
यह कहते हुए उन्होंने उठने की चेष्टा की,मगर उठ न सके।
इशारे की देर थी। संगठित सेना की भांति लोग हुक्म पाते ही पीछे फिर गये। झण्डियों के बासों, साफों और रूमालों से चटपट एक स्ट्रेचर तैयार हो गया। इब्राहिम को लोगों ने उस पर लिटा दिया और पीछे फिरे; मगर क्या वह परास्त हो गये थे ! अगर कुछ लोगों को उन्हें परास्त मानने में ही सन्तोष होता हो, तो हो ; लेकिन वास्तव में उन्होंने एक युगान्तरकारी विजय प्राप्त की थी। वे जानते थे, हमारा संघर्ष अपने ही भाइयों से है, जिनके हित परिस्थितियों के कारण हमारे हितों से भिन्न हैं। हमें उनसे वैर नहीं करना है। फिर, वह यह भी नहीं चाहते थे कि शहर में लूट और दंगे का बाज़ार गर्म हो जाय और हमारे धर्मयुद्ध का अन्त लुटी हुई दूकानें और