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जुलूस

पूर्ण स्वराज्य का जुलूस निकल रहा था। कुछ युवक, कुछ बूढ़े, कुछ बालक झण्डियां और झण्डे लिये वन्दे मातरम् गाते हुए माल के सामने से निकले। दोनों तरफ़ दर्शकों की दीवारे खड़ी थीं, मानो उन्हें इस जत्थे से कोई सरोकार नहीं है, मानो यह कोई तमाशा है और उनका काम केवल खड़े-खड़े देखना है।

शंभूनाथ ने दुकान की पटरी पर खड़े होकर अपने पड़ोसी दीनदयाल से कहा -- सब-के-सब काल के मुंँह में जा रहे हैं। आगे सवारों का दल मार-मार भगा देगा।

दीनदयाल ने कहा -- महात्माजी भी सठिया गये हैं। जुलूस निकालने से स्वराज्य मिल जाता, तो अब तक कवका मिल गया होता। और जुलूस में हैं कौन लोग, देखो-लौंडे, लफंगे, सिर-फिरे। शहर का कोई बड़ा आदमी नहीं।

मैकू चट्टियों और स्लीपरों की माला गरदन में लटकाये खड़ा था। इन दोनों सेठों की बातें सुनकर हँसा।

शंभू ने पूछा -- क्यों हँसे मैकू ? आज रंग चोखा मालूम होता है।

मैकू--हँसा इस बात पर जो तुमने कही कि कोई बड़ा आदमी जुलूस में नहीं है। बड़े आदमी क्यों जुलूस में आने लगे, उन्हें इस राज में कौन आराम नहीं है। बँगलों और महलों में रहते हैं, मोटरों पर घूमते हैं, साहबों के साथ दावतें खाते हैं, कौन तकलीफ़ है। मर तो हम लोग रहे हैं, जिन्हें रोटियों का ठिकाना नहीं। इस बखत कोई टेनिस खेलता होगा, कोई चाय पीता होगा, कोई ग्रामोफ़ोन लिये गाना सुनता होगा, कोई पारिक की सैर करता होगा, यहाँ आयें पुलीस के कोड़े खाने के लिए ? तुमने भी भली कही!

शंभू-तुम यह बात क्या समझोगे मैकू, जिस काम में चार बड़े आदमी