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शराब की दूकान
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होती जाती थी। यहां तक कि बाज़ार के दूसरे सिरे पर आकर वह रुक गया। रस्सी यहाँ ख़तम हो गई। उसके आगे जाना उसके लिए असाध्य हो गया। जिस झटके ने उसे यहाँ तक भेजा था, उसकी शक्ति अब शेष हो गई थी। उन शब्दों में जो कटुता और चोट थी, उसमें अब उसे सहानुभूति और स्नेह की सुगन्ध आ रही थी ?

उसे फिर चिन्ता हुई,न जाने वहाँ क्या हो रहा है। कहीं उन बदमाशों ने और कोई दुष्टता न की हो,या पुलीस न आ जाय।

वह बाज़ार की तरफ़ मुड़ा ; लेकिन एक कदम ही चलकर फिर रुक गया। ऐसे पशोपेश में वह कभी न पड़ा था।

सहसा उसे वही स्वयंसेवक दौड़ा आता दिखाई दिया। वह बदहवास होकर उससे मिलने के लिए खुद भी उसकी तरफ़ दौड़ा। बीच में दोनों मिल गये।

जयराम ने हांफते हुए पूछा -- क्या हुआ? क्यों भागे जा रहे हो ?

स्वयंसेवक ने दम लेकर कहा--बड़ा गज़ब हो गया बाबूजी! आपके आने के बाद वह काला शराबी बोतल लेकर दूकान से चला,तो देवीजी दरवाज़े पर बैठ गई। वह बार-बार देवीजी को हटाकर निकलना चाहता है ; पर वह फिर आकर बैठ जाती हैं। धक्कम-धक्के में उनके कपड़े फट गये हैं और कुछ चोट भी...

अभी बात पूरी न हुई थी कि जयराम शराबख़ाने की तरफ़ दौड़ा।

[ ६ ]

जयराम शराबख़ाने के सामने पहुँचा तो देखा मिसेज़ सकसेना के चारों स्वयंसेवक दूकान के सामने लेटे हुए हैं और मिसेज़ सकसेना एक किनारे सिर झुकाये खड़ी हैं। जयराम न डरते-डरते उनके चेहरे पर निगाह डाली। आँचल पर रक्त की बू दें दिखाई दीं। उसे फिर कुछ सुध न रही। खून की वह चिन्गारियाँ, जैसे उसके रोम-रोम में समा गई। उसका खून खौलने लगा,मानो उसके सिर खून सवार हो गया हो। वह उन चारों शराबियों पर टूट पड़ा और पूरे ज़ोर के साथ लकड़ी चलाने लगा। एक-एक बूंद क जगह