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शराब की दूकान
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की जरूरत है। आखिर क्यों स्त्रियों ही को इस काम के लिए उपयुक्त समझा जाता है ! इसी लिए कि मरदों के सिर भूत सवार हो जाता है और जहाँ नम्रता से काम लेना चाहिए, वहाँ लोग उग्रता से काम लेने लगते हैं। वे देवियां क्या इसी योग्य हैं कि शोहदों के फ़िक़रे सुनें और उनकी कुदृष्टि का निशाना बने ? कम-से-कम मैं यह नहीं देख सकता।

वह लँगड़ाता हुआ घर से निकल पड़ा । चम्मू , ने फिर उसे रोकने का प्रयास नहीं किया। रास्ते में एक स्वयंसेवक मिल गया। जयराम ने उसे साथ लिया और एक तांगे पर बैठकर चला। शराबखाने से कुछ दूर इधर एक लेमनेड-बर्फ की दूकान थी। उसने तांगे को छोड़ दिया और वालंटियर को शराबखाने भेजकर खुद उसी दूकान में जा बैठा।

दूकानदार ने लेमनेड का एक ग्लास उसे देते हुए कहा -- बाबूजी, कलवाले चारों बदमाश आज फिर आये हुए हैं। आपने न बचाया होता तो आज शराब या ताड़ी की जगह हल्दी-गुड़ पीते होते।

जयराम ने ग्लास लेकर कहा-तुम लोग बीच में न कूद पड़ते, तो मैंने उन सबों को ठीक कर लिया होता।

दुकानदार ने प्रतिवाद किया -- नहीं बाबूजी, वह सब छटे हुए गुण्डे हैं। मैं तो उन्हें अपनी दूकान के सामने खड़ा भी नहीं होने देता। चारो तीन- तीन साल काट आये हैं।

अभी बीस मिनट भी न गुज़रे होंगे कि एक स्वयंसेवक आकर खड़ा हो गया। जयराम ने सचिंत होकर पूछा-कहो, वहाँ क्या हो रहा है ? स्वयंसेवक ने कुछ ऐसा मुँह बना लिया, जैसे वहां की दशा कहना वह उचित नहीं समझता और बोला-कुछ नहीं, देवीजी आदमियों को समझा रही हैं।

जयराम ने उसकी ओर अतृप्त नेत्रों से ताका, मानो कह रहे हो, बस इतना ही ! इतना तो मैं जानता ही था।

स्वयंसेवक ने एक क्षण के बाद फिर कहा- देवियों का ऐसे शोहदों के सामने जाना अच्छा नहीं।