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समर-यात्रा
 


( ५ )

तीसरे पहर मिसेज़ सकसेना चार स्वयंसेवकों के साथ बेगमगंज चलीं। जयराम आँखें बन्द किये चारपाई पर पड़ा था। शोर सुनकर चौंका और अपनी स्त्री से पूछा--यह कैसा शोर है ?

स्त्री ने खिड़की से झांककर देखा और बोली -- वह औरत, जो कल आई थी, झण्डा लिये कई आदमियों के साथ जा रही है। इसे शर्म भी नहीं आती?

जयराम ने उसके चेहरे पर क्षमा की दृष्टि डाली और विचार में डूब गया। फिर वह उठ खड़ा हुआ और बोला-मैं भी वहीं जाता हूँ।

स्त्री ने उसका हाथ पकड़ कर कहा -- अभी कल मार खाकर आये हो,आज फिर जाने की सूझी !

जयराम ने हाथ छुड़ाकर कहा - उसे मार कहती हो, मैं उसे उपहार समझता हूँ।

स्त्री ने उसका रास्ता रोक लिया -- कहती हूँ, तुम्हारा जी अच्छा नहीं है, मत जाओ, क्यों मेरी जान के गाहक हुए हो। उसकी देह में हीरे नहीं जड़े हैं, जो वहाँ कोई नोच लेगा?

जयराम ने मिन्नत करके कहा-मेरी तबीयत बिलकुल अच्छी है चम्मू, अगर कुछ कसर है तो वह भी मिट जायगी। भला सोचो, यह कैसे मुमकिन है कि एक देवी उन शोहदों के बीच में पिकेटिग करने जाय और मैं बैठा रहूँ। मेरा वहाँ रहना ज़रूरी है। अगर कोई बात आ पड़ी, तो कम से कम मैं लोगों को समझा तो सकूँगा।

चम्मू ने जलकर कहा -- यह क्यों नहीं कहते कि कोई और ही चीज़ खींचे लिये जाती है।

जयराम ने मुसकिराकर उसकी ओर देखा, जैसे कह रहा हो -- यह बात तुम्हारे दिल से नहीं, कंठ से निकल रही है और कतराकर निकल गया। फिर द्वार पर खड़ा होकर बोला-शहर में तीन लाख से कुछ ही कम आदमी हैं, कमेटी में भी ३० मेम्बर हैं; मगर सब-के-सब जी चुरा रहे हैं। लोगों को अच्छा बहाना मिल गया कि शराब-खानों पर धरना देने के लिए स्त्रियों ही