रहकर जी डूबा जाता था। एकाएक सिरहाने की तरफ़ आँख उठ गई, तो मिसेज़ सकसेना बैठी नज़र आई। उन्हें देखते ही वह स्वयंसेवकों के मना करने पर भी उठ बैठा। दर्द और कमज़ोरी दोनों जैसे गायब हो गई। एक-एक अंग में स्फूर्ति दौड़ गई।
मिसेज़ सकसेना ने उसके सिर पर हाथ रखकर कहा-आपको बड़ी चोट आई। इसका सारा दोष मुझ पर है।
जयराम ने भक्तिमय कृतज्ञता के भाव से देखकर कहा-चोट तो ऐसी ज़्यादा न थी, इन लोगों ने बरबस पट्टी-सट्टी बांधकर जख्मी बना दिया।
मिसेज़ सकसेना ने ग्लानित होकर कहा--मुझे आपको न जाने देना चाहिए था।
जयराम--आपका वहाँ जाना उचित न था। मैं आपसे अब भी यही अनुरोध करूँगा कि उस तरफ़ न जाइएगा।
मिसेज़ सकसेना ने जैसे उन बाधाओं पर हँसकर कहा--वाह ! मुझे आज से वही पिकेट करने की आज्ञा मिल गई है।
'आप मेरी इतनी विनय मान जाइएगा। शोहदों के लिए आवाज़ कसना बिलकुल मामूली बात है।'
'मैं आवाज़ों की परवाह नहीं करती।'
'तो फिर मैं भी आपके साथ चलूँगा।'
'आप ! इस हालत में ?' -- मिसेज़ सकसेना ने आश्चर्य से कहा।
'मैं बिलकुल अच्छा हूँ, सच !'
'यह नहीं हो सकता। जब तक डाक्टर यह न कह देगा कि अब आप वहाँ जाने के योग्य हैं, मैं आपको न जाने दूंँगी। किसी तरह नहीं।'
'तो मैं भी आपको न जाने दूंँगा।'
मिसेज़ सकसेना ने मृदु-व्यंग्य के साथ कहा-आप भी अन्य पुरुषों ही की भांति स्वार्थ के पुतले हैं। सदा यश खुद लूटना चाहते हैं, औरतों को कोई मौक़ा नहीं देना चाहते। कम से कम यह तो देख लीजिए कि मैं भी कुछ कर सकती हूँ या नहीं ?
जयराम ने व्यथित कंठ से कहा--जैसी आपकी इच्छा !