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लांछन
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जुगनू---(उँगली चमकाकर ) चलिए-चलिए, लीलावती हैं। साड़ी पहनकर औरत बनते लाज नहीं पाती। तुम रात को नहीं इनके घर थे?

लीलावती ने विनोद-भाव से कहा---मैं कब इनकार कर रही हूँ। इस वक्त लीलावती हूँ। रात को विलियम किंग बन जाती हूँ। इसमें बात ही क्या है।

देवियों को अब यथार्थ की लालिमा दिखाई दी। चारों तरफ क़हक़हे पड़ने लगे। कोई तालियां बजाती थी, कोई डाक्टर लीलावती की गरदन से लिपटी जाती थी, कोई मिस खुरशेद की पीठ पर थाकियां देती थी। कई मिनट तक हू-हा मचा रहा । जुगनू का मुँह उस लालिमा में बिलकुल जरा-सा निकल आया । जबान बन्द हो गई। ऐसा चरका उसने कभी न खाया था। इतनी ज़लील कभी न हुई थी।

मिसेज़ मेहरा ने डाँट बताई---अब बोलो दाई, लगी मुँह में कालिख कि नहीं?

मिसेज़ बांगड़ा---इसी तरह यह सबको बदनाम करती है।

लीलावती---आप लोग भी तो जो यह कहती है, उसपर विश्वास कर लेती हैं।

इस हरबोंग में जुगनू को किसी ने जाते न देखा। अपने सिर पर यह तूफ़ान उठते देखकर, उसे चुपके से सरक जाने ही में अपनी कुशल मालूम हुई। पीछे के द्वार से निकली और गलियों-गलियों भागी।

मिस खुरशेद ने कहा---जरा उससे पूछो, मेरे पीछे क्यों पड़ गई थी!

मिसेज़ टण्डन ने पुकारा ; पर जुगनू कहाँ ! तलाश होने लगा। जुगनू गायब!

उस दिन से शहर में फिर किसी ने जुगनू की सूरत नहीं देखी। आश्रम के इतिहास में यह मुआमला आज भी उल्लेख और मनोरंजन का विषय बना हुआ है।

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