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समर-यात्रा
 

को तो हाथ पर लिया और एक डग आगे बढ़कर ऐसा घूँसा साहब के मुँह पर रसीद किया कि साहब की आँखों के सामने अँधेरा छा गया। वह इस मुष्टिप्रहार के लिए तैयार न थे। उन्हें कई बार इसका अनुभव हो चुका था कि नेटिव बहुत शान्त, दब्बू और गमख़ोर होता है। विशेषकर साहबों के सामने तो उसकी ज़बान तक नहीं खुलती। कुर्सी पर बैठकर नाक का खून पोंछने लगा। फिर मिस्टर सेठ से उलझने की उसकी हिम्मत नहीं पड़ी; मगर दिल में सोच रहा था, इसे कैसे नीचा दिखाऊँ।

मिस्टर सेठ भी अपने कमरे में आकर इस परिस्थिति पर विचार करने लगे। उन्हें बिलकुल खेद न था; बल्कि वह अपने साहस पर प्रसन्न थे। इसकी बदमाशी तो देखो कि मुझ पर रूल चला दिया। जितना दबता था, उतना ही दबाये जाता था। मेम यारों को लिये घूमा करती है, उससे बोलने की हिम्मत नहीं पड़ती। मुझसे शेर बन गया। अब दौड़ेगा कमिश्नर के पास। मुझे बरख़ास्त कराये बग़ैर न छोड़ेगा। यह सब कुछ गोदावरी के कारण हो रहा है। बेइज्ज़ती तो हो ही गई। अब रोटियों को भी मुहताज़ होना पड़ा। मुझसे तो कोई पूछेगा भी नहीं, बरख़ास्तगी का परवाना आ जायगा। अपील कहाँ होगी? सेक्रेटरी हैं हिन्दुस्तानी; मगर अँगरेज़ों से भी ज़्यादा अँगरेज़। होम मेम्बर भी हिन्दुस्तानी हैं; मगर अँगरेज़ों के गुलाम। गोदावरी के चन्दे का हाल सुनते ही उन्हें जूड़ी चढ़ आयेगी। न्याय की किसी से आशा नहीं। अब यहाँ से निकल जाने में ही कुशल है।

उन्होंने तुरन्त एक इस्तीफ़ा लिखा और साहब के पास भेज दिया। साहब ने उस पर लिख दिया, 'बरख़ास्त'।

(५)

दोपहर को जब मिस्टर सेठ मुँह लटकाये हुए घर पहुँचे, तो गोदावरी ने पूछा––आज जल्दी कैसे आ गये?

मिस्टर सेठ दहकती हुई आँखों से देखकर बोले––जिस बात पर लगी थीं, वह हो गई। अब रोओ, सिर पर हाथ रखके!

गोदावरी––बात क्या हुई, कुछ कहो भी तो?