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समर-यात्रा
 

'अगर तुमने यह नहीं समझा था, तो तुम्हारी ही बुद्धि का भ्रम था। रोज़ अखबारों में देखती हो, फिर भी मुझसे पूछती हो। एक कांग्रेस का आदमी प्लेट-फ़ार्म पर बोलने खड़ा होता है, तो बीसियों सादे कपड़ेवाले पुलीस अफ़सर उसकी रिपोर्ट लेने बैठते हैं। कांग्रेस के सर्ग़नाओं के पीछे कई-कई मुखबिर लगा दिये जाते हैं, जिनका काम यही है कि उनपर कड़ी निगाह रखें। चोरों के साथ तो इतनी सख़्ती कभी नहीं की जाती। इसीलिए हज़ारों चोरियाँ और डाके और ख़ून रोज़ होते रहते हैं। किसी का कुछ पता नहीं चलता; न पुलीस इसकी परवाह करती है। मगर पुलीस को जिस मामले में राजनीति की गंध भी आ जाती है, फिर देखो पुलीस की मुस्तैदी। इन्स्पेक्टर जनलर से लेकर कांस्टेबिल तक एड़ियों तक का ज़ोर लगाते हैं। सरकार को चोरों से भय नहीं। चोर सरकार पर चोट नहीं करता। कांग्रेस सरकार के अख़्तियार पर हमला करती है; इसलिए सरकार भी अपनी रक्षा के लिए अपने अख़्तियार से काम लेती है। यह तो प्रकृति का नियम है।

मिस्टर सेठ आज दफ़्तर चले, तो उनके क़दम पीछे रहे जाते थे। न-जाने आज वहाँ क्या हाल हो! रोज़ की तरह दफ्तर में पहुँचकर उन्होंने चपरासियों को डाँटा नहीं; क्लर्कों पर रोब नहीं जमाया; चुपके से जाकर कुर्सी पर बैठ गये। ऐसा मालूम होता था, कोई तलवार सिर पर लटक रही है। साहब की मोटर की आवाज़ सुनते ही उनके प्राण सूख गये। रोज़ वह अपने कमरे में बैठे रहते थे। जब साहब आकर बैठ जाते थे, तब आध घंटे के बाद मिसलें लेकर पहुँचते थे। आज वह बरामदे में खड़े थे, साहब उतरे, तो झुककर उन्होंने सलाम किया। मगर साहब ने मुँह फेर लिया।

लेकिन वह हिम्मत नहीं हारे, आगे बढ़कर पर्दा हटा दिया, साहब कमरे में गये, तो सेठ साहब ने पंखा खोल दिया; मगर जान सूखी जाती थी कि देखें कब सिर पर तलवार गिरती है। साहब ज्यों ही कुर्सी पर बैठे, सेठ ने लपककर सिगार-केस और दियासलाई मेज पर रख दी।

एकाएक उन्हें ऐसा मालूम हुआ, मानो आसमान फट गया हो। साहब गरज रहे थे, तुम दग़ाबाज़ आदमी है!