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समर-यात्रा
 


वह खिड़की के सामने पहुँचा, तो गोदावरी ने पुकारा––ओ अन्धे! खड़ा रह।

अंधा खड़ा हो गया। गोदावरी ने संदूक खोला; पर उसमें उसे एक पैसा मिला। नोट और रुपये थे; मगर अंधे फ़कीर को नोट या रुपये देने का तो सवाल ही न था। पैसे अगर दो-चार मिल जाते, तो इस वक्त वह ज़रूर दे देती; पर वहाँ एक ही पैसा था, वह भी इतना घिसा हुआ था कि कहार बाज़ार से लौटा लाया था। किसी दूकानदार ने न लिया था। अन्धे को वह पैसा देते हुए गोदावरी को शर्म आ रही थी। वह ज़रा देर तक पैसे को हाथ में लिये असमंजस में खड़ी रही। तब अंधे को बुलाया और पैसा दे दिया।

अंधे ने कहा––माताजी, कुछ खाने को दीजिए। आज दिन भर से कुछ नहीं खाया।

गोदावरी––दिन भर माँगता है, तब भी तुझे खाने को नहीं मिलता?

अंधा––क्या करूँ माता, कोई खाने को नहीं देता।

गोदावरी––इस पैसे का चबैना लेकर खा ले।

अंधा––खा लूँगा माताजी, भगवान् आपको ख़ुशी रखे। अब यहीं सोता हूँ।

(२)

दूसरे दिन प्रातःकाल कांग्रेस की तरफ़ से एक आम जलसा हुआ। मिस्टर सेठ ने विलायती टूथ पाउडर, विलायती ब्रुश से दाँतों पर मला, विलायती साबुन से नहाया, विलायती चाय विलायती प्यालियों में पी, विलायती बिसकुट विलायती मक्खन के साथ खाया, विलायती दूध पिया। फिर विलायती सूट धारण करके विलायती सिगार मुँह में दबाकर घर से निकले, और अपनी मोटर-साइकिल पर बैठकर फ़्लावर शो देखने चले गये।

गोदावरी को रात भर नींद नहीं आई थी, दुराशा और पराजय की कठिन यंत्रणा किसी कोड़े की तरह उसके हृदय पर पड़ रही थी। ऐसा मालूम होता था कि उसके कंठ में कोई कड़वी चीज़ अटक गई है। मिस्टर सेठ को अपने प्रभाव में लाने की उसने वह सब योजनाएँ की, जो एक रमणी कर