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समर-यात्रा
 

में एक लहर उठ रही थी कि इन चीज़ों को उठाकर उसी होली में डाल दे। उसकी सारी ग्लानि और दुर्बलता जलकर भस्म हो जाय; मगर पति की अप्रसन्नता के भय ने उसका हाथ पकड़ लिया। सहसा मि॰ सेठ ने अन्दर पाकर कहा––ज़रा इन सिरफिरों को देखो, कपड़े जला रहे हैं। यह पागलपन, उन्माद और विद्रोह नहीं तो और क्या है। किसी ने सच कहा है, हिन्दुस्तानियों को न अक्ल आई है, न आयेगी। कोई कल भी तो सीधी नहीं।

गोदावरी ने कहा––तुम भी हिन्दुस्तानी हो।

सेठ ने गर्म होकर कहा––हाँ; लेकिन मुझे इसका हमेशा खेद रहता है कि ऐसे अभागे देश में क्यों पैदा हुआ। मैं नहीं चाहता कि कोई मुझे हिंदुस्तानी कहे या समझे। कम से कम मैंने आचार-व्यवहार, वेश-भूषा, रीति-नीति, कर्म-वचन, में कोई ऐसी बात नहीं रखी, जिससे हमें कोई हिंदुस्तानी होने का कलंक लगाये। पूछिए, जब हमें आठ आने गज़ में बढ़िया कपड़ा मिलता है, तो हम क्यों मोटा टाट खरीदें। इस विषय में हर एक को पूरी स्वाधीनता होनी चाहिए। न जाने क्यों गवर्नमेन्ट ने इन दुष्टों को यहाँ जमा होने दिया। अगर मेरे हाथ में अधिकार होता, तो सबों को जहन्नुम रसीद कर देता। तब आटे-दाल का भाव मालूम होता।

गोदावरी ने अपने शब्दों में तिक्ष्ण तिरस्कार भरके कहा––तुम्हें अपने भाइयों का जरा भी ख्याल नहीं आता? भारत के सिवा और भी कोई देश है, जिसपर किसी दूसरी जाति का शासन हो? छोटे-छोटे राष्ट्र भी किसी दूसरी जाति के गुलाम बनकर नहीं रहना चाहते। क्या हिन्दुस्तान के लिए यह लज्जा की बात नहीं है कि वह अपने थोड़े-से फ़ायदे के लिए सरकार का साथ देकर अपने ही भाइयों के साथ अन्याय करे?

सेठ ने भौंहें चढ़ाकर कहा––मैं इन्हें अपना भाई नहीं समझता।

गोदावरी––आख़िर तुम्हें सरकार जो वेतन देती है, वह इन्हीं की जेब से आता है।

सेठ––मुझे इससे कोई मतलब नहीं कि मेरा वेतन किसकी जेब से आता है। मुझे जिसके हाथ से मिलता है, वह मेरा स्वामी है। न जाने इन दुष्टों को क्या सनक सवार हुई है। कहते हैं भारत आध्यात्मिक देश है। क्या