बरतन मांजो, कभी भोजन बनाओ, कभी झाडू लगाओ ! फिर स्वास्थ्य कैसे बने, जीवन कैसे सुखी हो, सैर कैसे करें। जीवन के आमोद-प्रमोद का आनन्द कैसे उठायें। अध्ययन कैसे करें। आपने खूब कहा, एक कदम में ५०० सालों की मंजिल पूरी हुई जाती है।
आचार्या-तो अबकी बिल पेश कर दीजिएगा ?
(आचार्या हाथ मिलाकर चला जाता है।)
क़ानूनी कुमार खिड़की के सामने खड़ा होकर 'होटल-प्रचार बिल' का मसविदा सोच रहा है। सहसा पार्क में एक स्त्री सामने से गुजरती है। उसकी गोद में एक बच्चा है, दो बच्चे पीछे-पीछे चल रहे हैं और उदर के उभार से मालूम होता है कि स्त्री गर्भवती भी है। उसका कृश शरीर, पीला मुख और मन्दगति देखकर अनुमान होता है कि उसका स्वास्थ्य बिगड़ा हुआ है,और इस भार का वहन करना उसे कष्टप्रद है।
क़ानूनी कुमार-(आप ही आप) इस समाज का, इस देश का और इस जीवन का सत्यानाश हो, जहाँ रमणियों को केवल बच्चा जनने की मशीन समझा जाता है। इस बेचारी को जीवन का क्या सुख !कितनी ही ऐसी बहनें इसी जंजाल में फँसकर ३०-३५ की अवस्था में, जब कि वास्तव में जीवन को सुखी होना चाहिए, रुग्ण होकर संसारयात्रा समाप्त कर देती हैं। हा भारत ! यह विपत्ति तेरे सर से कब टलेगी! संसार में ऐसे-ऐसे पाषाण-हृदय मनुष्य पड़े हुए हैं, जिन्हें इन दुखियारियों पर ज़रा भी दया नहीं पाती। ऐसे अन्धे, ऐसे पाषाण, ऐसे पाखण्डी समाज को, जो स्त्री को अपनी वासनाओं की वेदी पर बलिदान करता है, कानून के सिवा और किस विधि से सचेत किया जाय। और कोई उपाय नहीं है। नर-हत्या का जो दण्ड है, वही दण्ड ऐसे मनुष्यों को मिलना चाहिए। मुबारक होगा वह दिन, जब भारत में इस नाशिनी प्रथा का अन्त हो जायगा-स्त्री का मरण, बच्चों का मरण, और जिस समाज का जीवन ऐसी सन्तानों पर आधारित हो उसका मरण ! ऐसे बदमाशों को क्यों न दण्ड दिया जाय। कितने अन्धे लोग हैं । बेकारी का यह हाल कि आधी जन-संख्या मक्खियाँ मार रही है, आमदनी का यह हाल कि भरपेट किसी को रोटियां नहीं मिलतीं, बच्चों को दूध स्वप्न