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समर-यात्रा
 

सूर्य निकलने के पहले ही कई हज़ार आदमियों का जमाव हो गया था। जब सत्याग्रहियों का दल निकला,तो लोगों की मस्ताना आवाज़ों से आकाश गूँज उठा। नये सैनिकों की विदाई,उनकी रमणियों का कातर धैर्य,माता-पिता का आर्द्र गर्व,सैनिकों के परित्याग का दृश्य लोगों को मस्त किये देता था।

सहसा नोहरी लाठी टेकती हुई आकर खड़ी हो गई।

मैकू ने कहा---काकी,हमें आशीर्वाद दो।

नोहरी---मैं तो तुम्हारे साथ ही चलती हूँ, बेटा, कितना आशीर्वाद लोगे?

कई आदमियों ने एक दर से कहा---काकी,तुम चली जाओगी,तो यहाँ कौन रहेगा?

नोहरी ने शुभ-कामना से भरे हुए स्वर में कहा---भैया,मेरे जाने के नो अब दिन ही हैं,आज न जाऊँगी,दो-चार महीने बाद जाऊँगी!अभी जाऊँगी,तो जीवन सफल हो जायगा। दो-चार महीने में खाट पर पड़े-पड़े जाऊँगी,तो मन की आस मन में ही रह जायगी। इतने बालक हैं,इनकी सेवा से मेरी मुकुत बन जायगी। भगवान् करे,तुम लोगों के सुदिन आयें और मैं अपनी जिन्दगी में तुम्हारा सुख देख लूँ।

यह कहते हए नोहरी ने सबको आशीर्वाद दिया और नायक के पास जाकर खड़ी हो गई। लोग खड़े देख रहे थे और जत्था गाता हुआ चला जाता था। 'एक दिन वह था कि हम सारे जहाँ में फ़र्द थे,

एक दिन यह है कि हम-सा बेहया कोई नहीं।'

नोहरी के पाँव ज़मीन पर न पड़ते थे,मानो विमान पर बैठी हुई स्वर्ग जा रही हो।

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