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समर-यात्रा
 


आ खड़ी हुई, जैसे लाठी के साथ ही उसने बुढ़ापे और दुःख के बोझ को फेंक दिया हो। वह एक पल अनुरक्त आँखों से आज़ादी के सैनिकों की ओर ताकती रही, मानो उनकी शक्ति को अपने अन्दर भर रही हो, तब वह नाचने लगी, इस तरह नाचने लगी, जैसे कोई सुन्दरी नवयौवना प्रेम और उल्लास के मद से विह्वल होकर नाचे। लोग दो-दो, चार-चार कदम पीछे हट गये, छोटा-सा आँगन बन गया और उस आँगन में वह बुढ़िया अपना अतीत नृत्य-कौशल दिखाने लगी। इस अलौकिक आनन्द के रेले में वह अपना सारा दुःख और सन्ताप भूल गई। उसके जीर्ण अंगों में जहाँ सदा वायु का प्रकोप रहता था, वहाँ न जाने इतनी चपलता, इतनी लचक, इतनी फुरती कहाँ से आ गई थी! पहले कुछ देर तो लोग मज़ाक से उसकी ओर ताकते रहे, जैसे बालक बन्दर का नाच देखते हैं, फिर अनुराग के इस पावन प्रवाह ने सभी को मतवाला कर दिया। उन्हें ऐसा जान पड़ा कि सारी प्रकृति एक विराट व्यापक नृत्य की गोद में खेल रही है।

कोदई ने कहा--बस करो भाभी, बस करो।

नोहरी ने थिरकते हुए कहा--खड़े क्यों हो, आओ न, जरा देखूँ, कैसा नाचते हो!

कोदई बोले--अब बुढ़ापे में क्या नाचूँ?

नोहरी ने जरा रुककर कहा-क्या तुम आज भी बूढ़े हो? मेरा बुढ़ापा तो जैसे भाग गया। इन वीरों को देखकर भी तुम्हारो छाती नहीं फूलती? हमारा ही दुःख-दर्द हरने के लिए तो इन्होने यह परन ठाना है। इन्हीं हाथों से हाकिमों की बेगार बजाई है, इन्हीं कानों से उनकी गालियां और घुड़कियाँ सुनी हैं। अब तो उस जोर-जुलुम का नाश होगा-हम और तुम क्या अभी बूढ़े होने, जोग थे? हमें पेट की आग ने जलाया है। बोलो, ईमान से, यहाँ इतने आदमी हैं, किसी ने इधर छः महीने से पेट भर रोटी खाई है? घी किसी को सूंघने को मिला है। कभी नींद भर सोये हो? जिस खेत का लगान तीन रुपये देते थे, अब उसी के नौ-दस देते हो। क्या धरती सोना उगलेगी? काम करते-करते छाती फट गई। हमी हैं कि इतना सहकर भी जीते हैं। दूसरा होता, तो या तो मार डालता, या मर जाता। धन्य हैं