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समर-यात्रा
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नोहरी अभी बैठी हुई थी कि शोर मचा—जत्था आ गया! पच्छिम में गर्द उड़ती हुई नज़र आ रही थी, मानों पृथ्वी उन यात्रियों के स्वागत में अपने रज-रत्नों की वर्षा कर रही हो। गाँव के सब स्त्री-पुरुष सब काम छोड़-छोड़कर उनका अभिवादन करने चले। एक क्षण में तिरंगी पताका हवा में फहराती दिखाई दी, मानो स्वराज्य ऊँचे आसन पर बैठा हुआ सबको आशीर्वाद दे रहा हो।

स्त्रियाँ मंगल-गान करने लगीं। ज़रा देर में यात्रियों का दल साफ़ नज़र आने लगा। दो-दो आदमियों की क़तारे थीं। हरएक की देह पर खद्दर का कुर्ता था, सिर पर गाँधी टोपी, बगल में थैला लटकता हुआ, दोनों हाथ खाली, मानो स्वराज्य का आलिंगन करने को तैयार हों। फिर उनका कण्ठ-स्वर सुनाई देने लगा। उनके मरदाने गलों से एक कौमी तराना निकल रहा था। गर्म, गहरा, दिलों में स्फूर्ति डालनेवाला——

'एक दिन वह था कि हम सारे जहाँ में फ़र्द थे,
एक दिन यह है कि हम-सा बेहया कोई नहीं।
एक दिन वह था कि अपनी शान पर देते थे जान,
एक दिन यह है कि हम-सा बेहया कोई नहीं।'

गाँववालों ने कई कदम आगे बढ़कर यात्रियों का स्वागत किया। बेचारों के सिरों पर धूल जमी हुई थी, ओठ सूखे हुए, चेहरे सँवलाये; पर आँखों में जैसे आज़ादी की ज्योति चमक रही थी।

स्त्रियाँ गा रही थीं, बालक उछल रहे थे और पुरुष अपने अँगोछों से यात्रियों को हवा कर रहे थे, इस समारोह में नोहरी की ओर किसी का ध्यान न गया, जो अपनी लठिया पकड़े सबके पीछे सजीव आशीर्वाद बनी खड़ी थी। उसकी आँखें डबडबाई हुई थीं, मुख से गौरव की ऐसी झलक आ रही थी, मानो वह कोई रानी है, मानो यह सारा गाँव उसका है, ये सभी युवक उसके बालक हैं। अपने मन में उसने ऐसी शक्ति, ऐसे विकास, ऐसे उत्थान का अनुभव कभी न किया था।

सहसा उसने लाठी फेंक दी और भीड़ को चीरती हुई यात्रियों के सामने