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समर-यात्रा
 

ससुरजी पेंशन पाते थे। पिताजी जंगल के महकमे में अच्छे पद पर थे; पर सारा दिन गुज़र गया, तार का जवाब नदारद ! दूसरे दिन भी कोई जवाब नहीं। तीसरे दिन दोनों महाशयों के पत्र आये। दोनों जामे से बाहर थे।ससुरजी ने लिखा-आशा थी, तुम लोग बुढ़ापे में मेरा पालन करोगे । तुमने उस आशा पर पानी फेर दिया। क्या अब चाहती हो, मैं भिक्षा माग! मैं सरकार से पेंशन पाता हूँ। तुम्हें आश्रय देकर मैं अपनी पेंशन से हाथ नहीं धो सकता । पिताजी के शब्द इतने कठोर न थे; पर भाव लगभग ऐसा ही था । इसी साल उन्हें ग्रेड मिलनेवाला था। वह मुझे बुलायेंगे, तो संभव है, ग्रेड से वंचित होना पड़े। हाँ, वह मेरी सहायता मौखिक रूप से करने को तैयार थे। मैंने दोनों पत्र फाड़कर फेंक दिये और फिर उन्हें कोई पत्र न लिखा । हा स्वार्थ ! तेरी माया कितनी प्रबल है। अपना ही पिता, केवल स्वार्थ में बाधा पड़ने के भय से, लड़की की तरफ से इतना निर्दय हो जाय ! अपना ही ससुर अपनी बहू की ओर से इतना उदासीन हो जाय ! मगर अभी मेरी उम्र ही क्या है ? अभी तो सारी दुनिया देखने को पड़ी है।

अब तक मैं अपने विषय में निश्चिन्त थी, लेकिन अब यह नई चिन्ता सवार हुई । इस निर्जन घर में, निराधार, निराश्रय कैसे रहूँगी; मगर जाऊँगी कहाँ ! अगर मर्द होती, तो कांग्रेस के आश्रम में चली जाती या कोई मजूरी कर लेती। मेरे पैरों में तो नारीत्व की बेड़ियाँ पड़ी हुई थीं। अपनी रक्षा की इतनी चिन्ता न थी, जितनी अपने नारीत्व की रक्षा की। अपनी जान की फिक्र न थी; पर नारीत्व की ओर किसी की आँख भी न उठनी चाहिए।

किसी की आहट पाकर मैंने नीचे देखा । दो आदमी खड़े थे। जी में आया, पूछ तुम कौन हो ? यहाँ क्यों खड़े हो ? मगर फिर ख़याल आया, मुझे यह पूछने का क्या हक ! आम रास्ता है। जिसका जी चाहे खड़ा हो ।

पर मुझे खटका हो गया। उस शंका को किसी तरह दिल से न निकाल सकती थी। वह एक चिंगारी की भांति हृदय के एक क्षेत्र में समा गई थी।

गर्मी से देह फु की जाती थी; पर मैंने कमरे का द्वार भीतर से बन्द कर लिया। घर में एक बड़ा-सा चाकू था। उसे निकालकर सिरहाने रख लिया। वह शंका सामने बैठी घूरती हुई मालूम होती थी।