'आज तुम्हें न आना चाहिए था। सुखदा बहन तो कहती थीं, मैं आज उन्हें न जाने दूंगी।'
'कल के अपमान के बाद अब मैं उन्हें मुँह दिखाने योग्य नहीं हूँ। जब बह रमणी होकर इतना कर सकती हैं, तो हम तो हर तरह के कष्ट उठाने के लिए बने ही हैं । खासकर जब बाल-बच्चों का भार सिर पर नहीं है।'
उसी वक्त पुलीस की लॉरी आई; एक सब-इंस्पेक्टर उतरा और स्वयं- सेवकों के पास आकर बोला--मैं तुम लोगों को गिरफ्तार करता हूँ।
'वन्दे मातरम्' की ध्वनि हुई । तमाशाइयों में कुछ हलचल हुई। लोग दो-दो कदम और आगे बढ़ आये । स्वयंसेवकों ने दर्शकों को प्रणाम किया और मुस्कराते हुए लॉरी में जा बैठे। अमरकान्त सबसे आगे थे। लॉरी चलना ही चाहती थी कि सुखदा किसी तरफ़ से दौड़ी हुई आ गई । उसके हाथ में एक पुष्पमाला थी । लॉरी का द्वार खुला था उसने ऊपर चढ़कर वह माला अमरकान्त के गले में डाल दी। आँखों से स्नेह और गर्व की दो बूँदें टपक पड़ी। लॉरी चली गई। यही होली थी, यही होली का आनन्द-मिलन था।
उसी वक्त सुखदा दूकान पर खड़ी होकर बोली-विलायती कपड़े खरीदना और पहनना देश-द्रोह है !