लगे-ये लोग मेरे कपड़े छीनकर भाग गये हैं और उन्हें गायब कर दिया मैं इसे डाका कहता हूँ। यह चोरी है। इसे मैं न सत्याग्रह कहता हूँ, न देश-प्रेम।
युवती ने दिलासा दिया-घबड़ाइए नहीं। आपके कपड़े मिल जायेंगे। होंगे तो इन्हीं लोगों के पास । कैसे कपड़े थे ?
एक स्वयंसेवक बोला-बहनजी, इन्होंने हाशिम की दूकान से कपड़े लिये हैं।
युवती-किसी के दूकान से लिये हों, तुम्हें उनके हाथ से कपड़ा छीनने का कोई अधिकार नहीं है। आपके कपड़े वापस ला दो। किसके पास है ?
एक क्षण में अमरकान्त की साड़ी जैसे हाथों-हाथ गई थी, वैसे ही हाथों- हाथ वापस आ गई। ज़रा देर में भीड़ भी गायब हो गई। स्वयं सेवक भी चले गये । अमरकान्त ने युवती को धन्यवाद देते हुए कहा---आप इस समय न आ गई होती, तो इन लोगों ने धोती तो गायब कर ही दी थी, शायद मेरी ख़बर भी लेते।
युवती ने सरल भर्त्सना के भाव से कहा-जन-सम्मति का लिहाज़ सभी को करना पड़ता है, मगर आपने इस दूकान से कपड़े लिये ही क्यों ? जब आप देख रहे हैं कि वहां हमारे ऊपर कितना अत्याचार हो रहा है, फिर भी आपने न माना। जो लोग समझकर भी नहीं समझते उन्हें कैसे कोई समझाये।
अमरकान्त इस समय लजित हो गये और अपने मित्रों में बैठकर वे जो स्वेच्छा के राग अलाप रहे थे, वह भूल गये। बोले-मैंने अपने लिए नहीं खरीदे हैं, एक महिला की फ़रमाइश थी, इसलिए मजबूर था।
'उन महिला को आपने समझाया नहीं ?'
'आप समझाती, तो शायद समझ जातीं, मेरे समझाने से तो न समझी।'
'कभी अवसर मिला, तो ज़रूर समझाने की चेष्टा करूँगी। पुरुषों की नकेल महिलाओं के हाथ में है ! आप किस मुहल्ले में रहते हैं ?'
'सादतगंज में।'