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जेल
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स्त्री से न रहा गया। शामत की मारी कांसटेबलों को कुवचन कहने लगी। बस, एक सिपाही ने उसे नंगा कर दिया। क्या कहूँ बहन, कहते शर्म आती है। हमारे ही भाई इतनी निर्दयता करें, इससे ज्यादा दुःख और लज्जा की और क्या बात होगी ? अब किसान से ज़ब्त न हुआ। कभी पेट भर गरीबों को खाने को तो मिलता नहीं, इस पर इतना कठोर परिश्रम ! न देह में बल है, न दिल में हिम्मत, पर मनुष्य का हृदय ही तो ठहरा। बेचारा बेदम पड़ा हुआ था। स्त्री का चिल्लाना सुनकर उठ बैठा और उस दुष्ट सिपाही को धक्का देकर ज़मीन पर गिरा दिया। फिर दोनों में कुश्तम-कुश्ती होने लगी। एक किसान किसी पुलीस के आदमी के साथ इतनी बेअदब करे, इसे भला वह कहीं बरदाश्त कर सकती है। सब कांसटेबलों ने ग़रीब को इतना मारा कि वह मर गया।

क्षमा ने कहा -- गाँव के और लोग तमाशा देखते रहे होंगे ?

मृदुला तीव्र कंठ से बोली -- वहन, प्रजा की तो हर तरह से मरन है। अगर दस-बीस आदमी जमा हो जाते, तो पुलीस कहती, हमसे लड़ने आये हैं। डण्डे चलाने शुरू करती और अगर कोई आदमी क्रोध में आकर एकाध कंकड़ फेंक देता, तो गोलियाँ चला देती। दस-बीस आदमी भुन जाते। इसी लिए लोग जमा नहीं होते ; लेकिन जब वह किसान मर गया, तो गाँव-वालों को तैश आ गया। लाठियाँ ले-लेकर दौड़ पड़े और कांसटेबलों को घेर लिया। संभव है, दो-चार आदमियों ने लाठियाँ चलाई भी हों। कांसटेबलों ने गोलियां चलानी शुरू की। दो-तीन सिपाहियों के हलकी चोटें आई। उसके बदले में बारह आदमियों की जान ले ली गई और कितनों ही के अंगभंग कर दिये गये। इन छोटे-छोटे आदमियों को इसी लिए तो इतने अधिकार दिये गये हैं कि वे उनका दुरुपयोग करें। आधे गाँव का क़त्लेआम करके पुलिस विजय के नगाड़े बजाती हई लौट गई। गाँववालों की फ़रियाद कौन सुनता। ग़रीब हैं, बेकस हैं, अपंग हैं, जितने आदमियों को चाहो, मार डालो। अदालत और हाकिमों से तो उन्होंने न्याय की आशा करना ही छोड़ दिया। आख़िर सरकार ही ने तो कांस्टेबलों को यह मुहीम सर करने के लिए भेजा था। वह किसानों की फ़रियाद क्यों सुनने लगी। मगर आदमी का